Saturday, May 31, 2014





शिवाजी का पत्र- जयसिंह के नाम --
भारतीय इतिहास में दो ऐसे पत्र मिलते हैं जिन्हें दो विख्यात महापुरुषों ने दो कुख्यात व्यक्तिओं को लिखे थे.
इनमे पहिला पत्र"जफरनामा "कहलाता है.जिसे श्री गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को भाई दया सिंह के हाथों भेजा था. यह दशम ग्रन्थ में शामिल है. इसमे कुल 130 पद हैं.
दूसरा पत्र शिवाजी ने आमेर के राजा जयसिंह को भेजा था. जो उसे 3 मार्च 1665 को मिल गया था.
इन दोनों पत्रों में यह समानताएं हैं की दोनों फारसी भाषा में शेर के रूप में लिखे गए हैं. दोनों की प्रष्ट भूमि और विषय एक जैसी है. दोनों में देश और धर्म के प्रति अटूट प्रेम प्रकट किया गया है.
शिवाजीकापत्र बरसों तक पटना साहेब के गुरुद्वारे के ग्रंथागार में रखा रहा, बाद में उसे "बाबू जगन्नाथ रत्नाकर" ने सन 1909 अप्रेल में काशी में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित किया था. बाद में "अमर स्वामी सरस्वती" ने उस पत्र का हिन्दी में पद्य और गद्य ने अनुवाद किया था. फिर सन 1985 में अमरज्योति प्रकाशन गाजियाबाद ने पुनः प्रकाशित किया था.
राजा जयसिंह आमेर का राजा था, वह उसी राजा मानसिंह का नाती था, जिसने अपनी बहिन अकबर से ब्याही थी. जयसिंह सन 1627 में गद्दी पर बैठा था और औरंगजेब का मित्र था. औरंगजेब ने उसे 4000 घुड सवारों का सेनापति बना कर "मिर्जा राजा" की पदवी दी थी.
औरंगजेब पूरे भारत में इस्लामी राज्य फैलाना चाहता था.लेकिन शिवाजी के कारण वह सफल नही हो रहा था. औरंगजेब चालाक और मक्कार था. उसने पाहिले तो शिवाजी से से मित्रता करनी चाही और दोस्ती के बदले शिवाजी से 23 किले मांगे. लेकिन शिवाजी उसका प्रस्ताव ठुकराते हुए 1664 में सूरत पर हमला कर दिया और मुगलों की वह सारी संपत्ति लूट ली जो उनहोंने हिन्दुओं से लूटी थी.
फिर औरंगजेब ने अपने मामा शाईश्ता खान को चालीस हजार की फ़ौज लेकर शिवाजी पर हमला करावा दिया और शिवाजी ने पूना के लाल महल में उसकी उंगलियाँ काट दीं और वह भाग गया. फिर औरंगजेब ने जयसिंह को कहा की वह शिवाजी को परास्त कर दे.
जयसिंह खुद को राम का वंशज मानता था. उसने युद्ध में जीत हासिल करने के लिए एक सहस्त्र चंडी यग्य भी कराया. शिवाजी को इसकी खबर मिल गयी थी जब उन्हें पता चला की औरंगजेब हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़ाना चाहता है. जिससे दोनों तरफ से हिन्दू ही मरेंगे. तब शिवाजी ने जयसिंह को समझाने के लिए जो पत्र भेजा था, उसके कुछ अंश हम आपके सामने प्रस्तुत कर रहे है -
1 -जिगरबंद फर्जानाये रामचंद -ज़ि तो गर्दने राजापूतां बुलंद .
हे रामचंद्र के वंशज ,तुमसे तो क्ष त्रिओं की इज्जत उंची हो रही है .
2 -शुनीदम कि बर कस्दे मन आमदी -ब फ़तहे दयारे दकन आमदी .
सूना है तुम दखन कि तरफ हमले के लिए आ रहे हो
3 -न दानी मगर कि ईं सियाही शवद-कज ईं मुल्को दीं रा तबाही शवद ..
तुम क्या यह नही जानते कि इस से देश और धर्म बर्बाद हो जाएगा.
4 -बगर चारा साजम ब तेगोतबर -दो जानिब रसद हिंदुआं रा जरर.
अगर मैं अपनी तलवार का प्रयोग करूंगा तो दोनों तरफ से हिन्दू ही मरेंगे
5 -बि बायद कि बर दुश्मने दीं ज़नी-बुनी बेख इस्लाम रा बर कुनी .
उचित तो यह होता कि आप धर्म दे दुश्मन इस्लाम की जड़ उखाड़ देते
6 -बिदानी कि बर हिन्दुआने दीगर -न यामद चि अज दस्त आं कीनावर .
आपको पता नहीं कि इस कपटी ने हिन्सुओं पर क्या क्या अत्याचार किये है
7 -ज़ि पासे वफ़ा गर बिदानी सखुन -चि कर्दी ब शाहे जहां याद कुन
इस आदमी की वफादारी से क्या फ़ायदा .तुम्हें पता नही कि इसने बाप शाहजहाँ के साथ क्या किया
8 -मिरा ज़हद बायद फरावां नमूद -पये हिन्दियो हिंद दीने हिनूद
हमें मिल कर हिंद देश हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के लिए लड़ाना चाहिए
9 -ब शमशीरो तदबीर आबे दहम -ब तुर्की बतुर्की जवाबे दहम .
हमें अपनी तलवार और तदबीर से दुश्मन को जैसे को तैसा जवाब देना चाहिए
10 -तराज़ेम राहे सुए काम ख्वेश -फरोज़ेम दर दोजहाँ नाम ख्वेश
अगर आप मेरी सलाह मामेंगे तो आपका लोक परलोक नाम होगा .
इस पत्र से आप खुद अंदाजा कर सकते है. शिवाजी का देश और धर्म के साथ हिन्दुओ के प्रति कितना लगाव था. हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हम उनके अनुयायी है. हमें उनके जीवन से सीखना चाहिए. तभी हम सच्चे देशभक्त बन सकते हैं.


वायलीन का आविष्कार रावण ने किया था
रावण वेद ज्ञानी के साथ साथ अच्छा वास्तुकार ओर संगीतज्ञ भी था।
अगर मैं आपसे कहूँ कि रावण वॉयलिन बजाता था तो ? ... बजाता ही नहीं था बल्कि उसने 'कृष्ण यजुर्वेद' के भाष्य के अलावा वॉयलिन का आविष्कार भी किया था तो क्या आप मान लेंगे ? अरे Ra-1 की नहीं, असली रावण ,दशानन जी की बात कर रहा हूँ मैं !
... विस्तार में जानने के लिए नीचे पढे-
रावण हत्था प्रमुख रूप से राजस्थानऔर गुजरातमें प्रयोग में लाया जाता रहा है। यह राजस्थान का एक लोक वाद्य है। पौराणिक साहित्य और हिन्दूपरम्परा की मान्यता है कि ईसा से हजारो वर्ष पूर्व लंका के राजा रावणने इसका आविष्कार किया था और आज भी यह चलन में है। रावण के ही नाम पर इसे रावण हत्था या रावण हस्त वीणा कहा जाता है। यह संभव है कि वर्तमान में इसका रूप कुछ बदल गया हो लेकिन इसे देखकर ऐसा लगता नहीं है। कुछ लेखकों द्वारा इसे वायलिनका पूर्वज भी माना जाता है।
इसे धनुष जैसी मींड़ और लगभग डेढ़-दो इंच व्यास वाले बाँस से बनाया जाता है। एक अधकटी सूखी लौकी या नारियल के खोल पर पशुचर्म अथवा साँप के केंचुली को मँढ़ कर एक से चार संख्या में तार खींच कर बाँस के लगभग समानान्तर बाँधे जाते हैं। यह मधुर ध्वनि उत्पन्न करता है।





हिन्दु नगरी था फतेहपुर सीकरी
उत्तर भारत मे आगरा के दक्षिण पश्चिम मे 23 मील की दूरी पर स्थित है फतेहपुर सीकरी।आमतौर पर बच्चो को पढाया जाता है कि फतेहपुर सीकरी का निर्माण 1556 से 1605 ई. मे अकबर ने करवाया था जो कि सरासर झुठ ओर मनगणत बाते है।
असल मे फतेहपुर सीकरी अकबर के जन्म से भी पहले की थी।जिसे बाबर ने राणा सांगा से हडप लिया था।
england के विक्टोरिया ओर अल्ब्रट पुस्तकालय मे एक फोटो(चित्राकृति)है,जिसमे अकबर का बाप हुमायु फतेहपुर साकरी के एक किले मे बेठा है।उस समय तो अकबर का जन्म भी नही हुआ था,तो नगर बसाने का सवाल ही नही उठता।
1 फतेहपुर सीकरी मे 9 द्वार है जिनके नाम इस तरह है-लाल द्वार,आगरा द्वार,बोरपोत द्वार,चन्द्रपोल द्वार,टेहरी द्वार,ग्वालियर द्वार,चोर द्वार व अजमेरी द्वार।
इसके अलावा अन्य दो द्वार-फूलद्वार ओर मथूरा द्वार है।
इन सब द्वारो मे से कोई भी नाम ईस्लामिक नही है।
पोलद्वार मे पोल शब्द संस्कृत का अपभ्रंश है।जो कि परम्परागत हिन्दु किलो से जुडा है।
इसी तरह लाल द्वार पवित्र हिन्दु भगवा रंग को दर्शाता है,जबकि कोई मुस्लिम लाल नाम से कोई निर्माण ना कराता।यदि अकबर इनहे बनवाता तो अरबी नाम रखवाता ना कि हिन्दु।
फतेहपुर सीकरी मे अनेक मुस्लिम शिलालेख है लेकिन किसी मे अकबर द्वारा सीकरी का निर्माण करवाना नही वताया है।यहा एक सलीम चिश्ति का मकबरा है जो कि एक मन्दिर था जिसे तोडकर सलीम चिश्ती का मकबरा बना दिया,ज्यादातर ईस्लामिक सुफी हिन्दु मन्दिरो मे ही दफनाए है ताकि हिन्दुओ के धर्म स्थलो पर कब्जा किया जा सके।जैसे साई ने भी मरने के बाद एक मन्दिर मे दफन होने की इच्छा की थी,जबकि सारी जिन्दगी मस्जिद मे रहा।
इस नगर मे एक स्तम्भ है जिसका आकार अष्टकोणिय है जो कि पवित्र हिन्दु संरचना है,इसका एक ईस्लामी बादशाह क्यो बनवाएगा।
इसी नगर मे एक अनूप तालाब है।जिसकी खुदाई से पता चला है कि इस मे कुछ हिन्दु मुर्तिया ओर पवित्र चिन्ह एक कच्चे फर्श से छिपाये गये थे।अनुप तालाब के समीप विशाल रक्त प्रांगण है जिसमे एक प्रस्तरीय प्रागंण पर पुरातन हिन्दु खेल चोपड का चित्र है।
इसी प्रांगण मे एक हिन्दु ज्योतिष पीटिका है।
इसी नगर मे एक जल घडी पात्र मिला है जिसका उपयाग भारतीय ज्योतिष नक्षत्र,मुहुर्त देखने मे करते थे।आर्यभटीय ओर भास्कराचार्य के ग्रंथो मे इस घडी का उल्लेख है।
ख्वावगाह के उत्तरी प्राचीर मे एर जीर्ञ शीर्ण नोका का चित्र है जो कि भगवान राम द्वारा केवट की नाव मे सीता ,लक्ष्मण सहित गंगा पार करने का है।
सुनहरी महल नामक एक भवन के बरामदे के उत्तरी पश्चिमी खम्भे पर अधुरी अधुरी कृष्ण जी की आकृति है।
ख्वावगाह के ऊपर एक खिडकी है जिस पर एक चित्र है जो गोतमबुध्द सा है।
इसी नगर के एक स्नानगृह के पास स्वस्तिक का चिन्ह है जो प्राचीन वैदिक कालीन हिन्दु रचना है।
फतेहपुर के हाथी द्वार मे भी हिन्दुमूलक हाथी की प्रतिमा है इस तरह की शैली राजपुतो की थी।उदयपुर का सहेलियो का बाग,भरतपुर के किले के फाटक व अन्य गढो मे एसा देखा जा सकता है।दोलत खाने के आगरा की दिशा की तरफ एक छोटी मस्जिद है,जिसके सम्मुख एक गुम्बद युक्त मण्डल है जिसकी खुदाई मे एक दिग्गंबर जैन मुर्ति प्राप्त हुई।
फतेहपुर सीकरी के पास एक डाकघर के समीप खुदी हुई सुरंग मे एक बुध्द का प्रस्तर मिला ।
उपरोक्त प्रमाणो से सिध्द होता है कि अकबर ने सीकरी को नही बसाया था।ये मुस्लिमो द्वारा हिन्दुओ से हडपा गया था।
कोई भी मुस्लिम शासक ने इस देश मे कोई भी निर्माण नही करवाया बल्की पुरातन हिन्दु जेन बुध्द मंदिरो को नष्ट भ्रस्ट कर अपना आधिपतय किया था।
वन्दे मातरम।


शेरे हिन्द हिन्दुस्तान गौरव शेर सिहं राणा...
शेर सिहं राणा का जीवन परिचय इस लिंक पर देखे-http://en.m.wikipedia.org/wiki/Sher_Singh_Rana
शेर सिह राणा वह महान व्यक्ति है जो महाराजा पृथ्वीराज चौहान की अस्थियो को अफगानिस्तान से भारत लाया ओर उनका एक पुत्र के समान गंगा मे प्रवाहित कर कानपुर मे उनका समाधि स्थल बनवाया।
इतिहास अनुसार पृथ्वीराज चौहान ओर मोहम्मद गौरी मे तराईन का द्वितीय युध्द हुआ जिसमे छल ओर कपट से गौरी ने पृथ्वीराज को बंदी बनाकर गजनी ले गया ओर वहा उनको अंधाकर शारिरीक मानसिक यात्नाए देने लगा फिर दिल्ली से चंदबरदाई ने जाकर पृथ्वीराज की मदद की ओर गोरी को मार गिरवाया ओर स्वंय आपस मे एक दूसरे को मार गिया..
इस कथन को कुछ भारतीय इतिहासकारो जो कि सैकुलर थे या फिर नेहरू प्रजाति के थे उनहोने इस कथन को झूठ कहा ओर लोगो को भ्रम मे डालने लगे कि पृथ्वीराज तो गौरी से युध्द मे रण भूमि मे ही खत्म हो गए थे..इस तरह इतिहासकारो ने इस रहस्य को पहेली बना दिया..
(गजनी: यह महाराजा गजसिहं के द्वारा बसाया गया था इसलिए इसे गजनी कहते है,उनहे गौरी ने मार दिया ओर स्वयं गजनी का सुलतान बन गया)
लेकिन जब इन्डियन एयर लाईन को काठमांडू से हाईजैक कर आतंकियो द्वारा अफगान ले जाया गया तब उस विमान मे उपस्थित एक पत्रकार ने इस बात का खुलासा किया कि गजनी मे पृथ्वीराज,चन्द्र बरदाई ओर गौरी की कब्र बनी है ओर पृथ्वीराज की उस कब्र का अपमान किया जाता है..
पृथवीराज की अस्थियो का अपमान वहा का मुस्लिम समुदाय उन अस्थियो पर जूते मारता है ओर कभी कभी गौ बलि भी देते है..
फिर वे लोग गौरी की कब्र पर जा कर उसे चूमते है ओर अपना सिर झूकाते है..
पृथ्वीराज के अस्थि स्थल पर अरबी मे लिखा है कि सुलतान चौहान जिसने हमारे सुलतान गौरी को धोखे से मारा..इस खबर के बाद क्षत्रिय महासभा ने कई जगह धरने प्रदर्शन किए कि पृथ्वीराज की अस्थियो को भारत लाया जाए लेकिन सरकार इसमे सफल नही हुई या फिर सरकार ने कोई प्रयास ही नही किया..लेकिन तिहाड जैल मे बंद शेर सिहं राणा ने यह करने की ठानी वे 2004 मे तिहाड जैल से भागने मे सफल हुए ओर झारखंड जाकर संजय गुप्ता नाम से अपना फर्जी पहचान पत्र बनवाया..वहा से वे बांगलादेश चले गए..दिसंबर 2004 मे उनहोने मुबई से अफगानिस्तान का बीजा बनवाया चुकि उस समय दिल्ली से अफगान जाना आसान नही था तो वे दुबई से अफगानिस्तान पहुचे..वहा वे कठिन परिश्रम कर पृथ्वीराज चौहान की अस्थियो को मार्च 2005 मे सफलता पूर्वक भारत ले आए..
हमने ऊपर जो चित्र लगाए है वे शेर सिहं राणा द्वारा बहुत सावधानीपूर्वक ओर सूझबूझ से लिए गए है क्युकि पृथ्वीराज चौहान की अस्थि सथल के आसपास के सारे घर तालिबानो के है जिनमे प्रत्येक घर मे 50 हथियार तो होगे ही..ऐसे मे वहा जाना किसी हिन्दु के लिए मौत के मुह मे जाने जैसा है....
शेर सिहं राणा ने इस कार्य को बडी सूझबूझ के साथ पूरा किया है वे वास्तव मे पृथ्वीराज के पुत्र थे...
राजपुत गौरव शेर सिहं राणा की जय..


जामा मस्जिद कही जाने वाली अहमदाबाद की वह इमारत प्राचिन अहमदाबाद की कुल देवी ओर राजदेवी भद्रकाली का मन्दिर था
-अहमदाबाद नगर को अहमदशाह के नाम पर अहमदाबाद कहते है इससे पूर्व इस नगर का नाम कर्णवती ओर अशावल था ।
अहमदशाह ने इस नगर के कई हिन्दु इमारतो ओर मन्दिरो को इस्लामी इमारते ओर मन्दिर मे बदला था।इनही मैसे एक है अहमदाबाद की जामा मस्जिद जो कि अहमदशाह के द्वारा क्षत विक्षत करने से पूर्व भद्रकाली मन्दिर था।इस मन्दिर मे आज भई द्वार मण्डल से लेकर अन्दर तक हिन्दु कला के दृश्न होते है
इस मस्जिद के मुख्य प्रार्थना स्थल मे पास पास सौ खम्भे है(फोटो मे भी देखा जा सकता है)जो केवल हिन्दु मन्दिरो मे होते है,यदि यह मस्जिद है तो नवाज के लिए खुला प्रागंण होना चाहिए।
इसी मस्जिद के प्राचिन पूजा गृह के गवाक्षो मे गढे हुए प्रस्तर पुष्प चिन्ह है ,जो लूटे हुए परिवर्तित स्मारको के सम्बन्ध मुस्लिम आक्रमणकारियो की ओर ही संकेत करता है।इस विशाल मन्दिर का एक बडा भाग आज कब्रिस्तान के रूप मे उपयोग मे होता है।
इस मस्जिद की संगतराशी मे पुष्प,जंजीर,घण्टिया ओर गवाक्षो जैसे अनैक हिन्दु लक्षण दिखाई देते है।
इस मन्दिर की कई प्रस्तर खण्डो को अहमदाबाद के आम रास्तो मे आक्रमण के समय सुरक्षित रखने के लिए गाड दिया गया था ।ये आज भी कुछ स्थानो पर आधे गडे या किसी के घर मकान मे पत्थर के रूप मे चुने हुए मिल जाएगे....
उपरोक्त कथन से यही सिध्द होता है कि जो लोग कहते है कि मुस्लिम शासको ने इस देश मे कई इमारतो का निर्माण करवाया था ओर भारत की स्थाप्त्य कला मे योगदान दिया था।तो ये पोस्ट उनके गाल पर एक तमाचा है क्युकि किसी भी मस्लिम शासक ने इस देश मे कोई भी निर्माण नही कराया था,वल्कि हिन्दु इमारतो मन्दिरो को हथ्या कर उनहे मकबरे,कब्रिस्तान,दरगाह,मस्जिदो मे बदला था ताकि हिन्दुधर्म को खत्म कर सके...
जय महाकाल...

Friday, May 30, 2014




इस्लामी शासन काल में षड्यंत्रिक TAX ..... और सनातन संस्कारों की हानि
इस्लामी आक्रमणों के 1200 वर्षों के इतिहास में धर्म की बहुत हानि हुई, सती प्रथा, बाल विवाह, जात पात, आदि जाने कितनी ही सामाजिक बुराइयां सनातन धर्म को छू गयीं, और काने कितनी ही विकृतियाँ सनातन धर्म को चोटिल करती रहीं l ऐसी ही कुछ बुराइयों के बारे में भारत वर्ष की इतिहास की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है परन्तु उन्हें पढ़ कर लगता है की वो केवल उपरी ज्ञान हैं, और ज्यादातर बुराइयों को सनातन धर्म से जोड़ कर ही दिखा दिया जाता है, परन्तु ये नहीं बताया जाता की उन बुराइयों के असली कारण क्या थे, और किन कारणों से उन बुराइयों का उदय हुआ और विस्तार हुआ ?
सनातन संस्कृति के शास्त्रों के अनुसार में मनुष्यों को 16 संस्कारों के साथ अपना जीवन व्यतीत करने का आदेश दिया गया है, जिनके नियम और उद्देश्य अलग अलग हैं l इस्लामी आक्रमणों से पहले तक संस्कार प्रथा अपने नियमो के अनुसार निरंतर आगे बढ़ रही थी, परन्तु इस्लामी आक्रमणों के बाद और सफलतम अंग्रेजी स्वप्न्कार Lord McCauley ने संस्कार पद्धतियों को सनातन संस्कृति से पृथक सा ही कर दिया l
यदि सही शब्दों में कहूं तो शायाद संस्कार प्रथा लुप्तप्राय सी ही हो चुकी है l इस्लामी शासनों के कार्यकालों में किस प्रकार संस्कारों में कमी हुई इसके बारे में आप सबको कुछ बताना चाहता हूँ, कृपया ध्यान से पढ़ें और सबको पढ़ा कर जागरूक करें .... आप सबने इस्लामी शासन कालों में जजिया और महसूल के बारे में ही सुना होगा ....
परन्तु सोचने वाली बात है की क्या इस्लामी मानसिकता के अनुसार हिन्दुओं पर धर्मांतरण के लिए दबाव बनाने हेतु ये दो ही कर (TAX) काफी थे... ये सोचना ही हास्यापद होगा l इस्लामी शासन कालों में समस्त 16 संस्कारों पर TAX लगाया जाता था, जिसको की नेहरु, प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहासकारों ने भारतीय शिक्षा पद्धति की इतिहास की पुस्तकों में जगह नहीं दी l ऐसे और भी बहुत से विषय हैं जिन पर यह बहस की जा सकती है, परन्तु वो किसी और दिन करेंगे l
अरब से जब इस्लामी आक्रमण प्रारम्भ हुए तो अपनी क्रूरता, वेह्शीपन, आक्रामकता, दरिंदगी, इरान, मिस्र, तुर्की, इराक, आदि सब विजय करते हुए सनातन संस्कृति को समाप्त करने मलेच्छों द्वारा ऋषि भूमि देव तुल्य अखंड भारत पर आक्रमण किये गए l लक्ष्य केवल एक था.... दारुल हर्ब को ... दारुल इस्लाम बनाने का
और इस लक्ष्य के लिए जिस नीचता पर उतरा जाए वो सब उचित थीं इस्लामी मानसिकता के अनुसार
ऐसी ही नीच मानसिकता के अनुसार जजिया और महसूल जैसे TAXES के बाद सनातन संस्कृति के 16 संस्कारों पर भी TAX लगाया गया l
संस्कारों पर TAX लगाने का मुख्य कारण यह था की सनातन धर्म के अनुयायी TAX के बोझ के कारण अपने संस्कारों से दूर हो जाएँ l धीरे धीरे इस प्रकार के षड्यंत्रों के कारण इस्लामी कट्टरपंथीयों द्वारा अपनाई गयी इस सोच का यह लक्ष्य सिद्ध होता गया l
धीरे धीरे समय ऐसा भी आया की कुछ लोग केवल आवश्यक संस्कारों को ही करवाने लगे, और कुछ लोग संस्कारों से पूर्णतया कट से गए l
सबसे पहले आता है गर्भाधान संस्कार .....
किसी सनातन धर्म की स्त्री द्वारा जब गर्भ धारण किया जाता था तो एक निश्चित TAX इलाके के मौलवी या इमाम के पास जमा किया जाता था और उसकी एक रसीद भी मिलती थी l यदि उस TAX को दिए बिना किसी भी सनातन धर्म के अनुसायी के घर में कोई सन्तान उत्पन्न होती थी तो उसे इस्लामी सैनिक उठा कर ले जाते थे और उसकी इस्लामी नियमो के अनुसार सुन्नत करके उसे मुसलमान बना दिया जाता था l
नामकरण संस्कार
नामकरण संस्कार का षड्यंत्र यदि देखा जाए तो सबसे महत्वपूर्ण है ...इस षड्यंत्र को समझने में
नामकरण संस्कार में जब किसी बच्चे का नाम रखा जाता था तो उन पर विभिन्न प्रकार के के TAX निर्धारित किये गए थे ...
उदाहरण के लिए .... कुंवर व्यापक सिंह ...
इसमें "कुंवर" शब्द एक सम्माननीय उपाधि को दर्शाता है, जो की किसी राजघराने से सम्बन्ध रखता हो,
उसके बाद "व्यापक" शब्द सनातन संस्कृति के शब्दकोश का एक ऐसा शब्द है जो जब तक चलन में रहेगा तब तक सनातन संस्कृति जीवित रहेगी l
उसके बाद "सिंह" शब्द आता है .... जो की एक वर्ण व्यवस्था या एक वंशावली का सूचक है l
कुंवर..... पर TAX 10000 रुपये
व्यापक ...पर TAX 1000 रुपये
सिंह ...... पर TAX 1000 रुपये
अब जो TAX चुकाने में सक्षम लोग थे वो अपने अपने बजट के अनुसार अपने बाचों के लिए शुभ नाम निकाल लेते थे l
समस्या वहां उत्पन्न हुई जिनके पास पैसे न हों....
अब आप सोचेंगे की ऐसे बच्चों का कोई नाम नहीं होता होगा .... ?
परन्तु ऐसा नही था ... ऐसे गरीब परिवारों के बच्चों के लिए भी नाम रखे जाने का प्रावधान था l
परन्तु ऐसे नाम उस इलाके के मौलवी या इमाम द्वारा मुफ्त में दिया जाता था और यह कडा नियम था की जो नाम इमाम या मौलवी देंगे वही रखा जायेगा .. अन्यथा दंड का प्रावधान भी होता था l
अब ज़रा सोचिये की किस प्रकार के नाम दिए जाते होंगे इलाके के मौलवी या इमाम द्वारा...
लल्लू राम,
झंडू राम,
कूड़े सिंह,
घासी राम,
घसीटा राम,
फांसी राम,
फुग्ग्न सिंह,
राम कटोरी,
लल्लू सिंह,
फुद्दू राम,
रोंदू सिंह,
रोंदू राम,
रोंदू मल,
खचेडू राम,
खचेडू मल,
लंगडा सिंह,
इस प्रकार के नाम इलाके के मौलवी और इमामो द्वारा मुफ्त में दिए जाते थे l
क्या आप ऐसे नाम अपने बच्चों के रख सकते हैं ... कभी ?? शायद नहीं ?
विवाह संस्कार के लिए इलाके के मौलवी से स्वीकृति लेनी पडती थी, बरात निकालने, ढोल नगाड़े बजाने पर भी TAX होता था, और बरात किस किस मार्ग से जाएगी यह भी मौलवी या इमाम ही तय करते थे l
और इस्लामिक केन्द्रों के सामने ढोल नगाड़े नहीं बजाये जायेंगे, वहां पर से सर झुका कर जाना पड़ेगा l
वर्तमान समय में असम और पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में तो यह आम बात है l
अंतिम संस्कार पर तो भारी TAX लगाया जाता था, जिसके कारण यह तक कहा जाता था कि यदि TAX देने का पैसा नहीं है तो इस्लाम स्वीकार करो और कब्रिस्तान में दफना दो l
वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, आजमगढ़, आदि क्षेत्रों में यह आम बात है l
केरल, बंगाल, असम के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में खुल्लम खुल्ला यह फरमान सुनाया जाता है, जहां पर प्रशासन और पुलिस द्वारा कोई सहायता नहीं उपलब्ध करवाई जाती l
इस्लामिक शासन काल में सनातन गुरुकुल शिक्षा पद्धति को भी धीरे धीरे नष्ट किया जाने लगा, औरंगजेब के शासनकाल में तो यह खुल्लम खुल्ला फरमान सुनाया गया था कि ...
किस प्रकार हिन्दुओं को मुसलमान बनाना है ?
किस किस प्रकार की यातनाएं देनी हैं ? किस प्रकार औरतों का शारीरिक मान मर्दन करना है ?
किस प्रकार मन्दिरों को ध्वस्त करना है ?
किस प्रकार मूर्तियों का विध्वंस करना है ?
मूर्तियों को तोड़ कर उन पर मल मूत्र का त्याग करके उनको मन्दिर के नीचे ही दबा देना, खासकर मंदिरों की सीढियों के नीचे, और फिर उसी के ऊपर मस्जिद का निर्माण कर दिया जाए l
मन्दिरों के पुजारियों को कटक कर दिया जाए, यदि वे इस्लाम कबूल करें तो छोड़ दिया जाए l
जितने भी गुरुकुल हैं उनको ध्वस्त कर दिया जाए और आचार्यों को तत्काल प्रभाव से मौत के घाट उतार दिया जाए l
गौशालाओं को अपने नियन्त्रण में ले लिया जाए l
कई मन्दिरों को ध्वस्त करते हुए तो वहां पर गाय काटी जाती थी l
वर्तमान समय में औरंगजेब के खुद के हाथों से लिखे ऐसे हस्तलेख हैं ..जिन पर उसके दस्तखत भी हैं l
ऐसे अत्याचारों और दमन के कारण उपनयन जैसा अति महत्वपूर्ण संस्कार भी विलुप्ति कि कगार पर पहुँचने लगा l
धीरे धीरे संस्कारों का यह सिलसिला ख़त्म सा होता चला गया, वानप्रस्थ और सन्यास संस्कारों को तो लोग भूल ही गए क्योंकि उनका अर्थ ही नहीं ज्ञात हो पाया आने वाली कई पीढ़ियों को l
छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा एक बार पंजाब क्षेत्र में Survey करवाया गया था जिसके अनुसार पंजाब के कई क्षेत्र ऐसे थे जहां पर लोग गायत्री महामंत्र भी भूल चुके थे, उन्हें उसका उच्चारण तो क्या इसके बारे में पता ही नहीं था l
धीरे धीरे पंजाब और अन्य क्षेत्रों में छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा उध्वस्त मन्दिरों का निर्माण करवाया गया और कई जगहों पर आचार्यों को भेजा गया जिन्होंने धर्म प्रचार एवं प्रसार के कार्य किये l
एक महत्वपूर्ण बात सामने आती है ....
कृपया ध्यान से पढ़ें और समझें एक अनोखी कहानी जो भुला दी गयी SICKULAR भारतीय इतिहासकारों द्वारा और नेहरु की kangres द्वारा
औरंगजेब की मृत्यु के 10 वर्ष के अंदर अंदर ही मुगलिया सल्तनत मिटटी में मिल चुकी थी, रंगीले शाह अपनी रंगीलियों के लिए प्रसिद्ध था और दिन प्रतिदिन मुगलिया सल्तनत कर्जों में डूब रही थी l
रंगीले शाह को कर्ज देने में सबसे आगे जयपुर के महाराजा था l
एक बार मौका पाकर जयपुर के महाराजा ने अपना कर्जा मांग लिया l
रंगीले शाह ने बुरे समय पर जयपुर के महाराजा से सम्बन्ध खराब करना उचित न समझा, क्योंकि आगे के लिए कर्ज मिलना बंद हो सकता था जयपुर के महाराज से.. परन्तु रंगीले शाह ने जयपुर के महाराजा की रियासतों को बढ़ा कर बहुत ही ज्यादा विस्तृत कर दिया और कहा की जो नए क्षेत्र आपको दिए गए हैं आप वहां से अपना कर वसूलें जिससे की कर्ज उतर जाए l
जयपुर के महाराज के प्रभाव क्षेत्र में अब गंगा किनारे ब्रिजघाट, आगरा, बिजनौर, सहारनपुर, पानीपत, सोनीपत आदि बहुत से क्षेत्र भी सम्मिलित हो गए l
इन क्षेत्रों में संस्कारों के ऊपर लगने वाले TAX .. जजिया और महसूल आदि धार्मिक TAXES के कारण जनता त्राहि त्राहि कर रही थी, और जयपुर के महाराजा के प्रभाव क्षेत्र में आने के कारण सनातन धर्मी अपनी आशाएं लगा कर बैठे थे की अब यह पैशाचिक TAXES का सिलसिला बंद होगा l
परन्तु जयपुर के महाराजा ने TAXES वापिस नहीं लिए l
मराठा साम्राज्य के पेशवा के राजदूत दीना नाथ शर्मा उन दिनों जयपुर में नियुक्त थे, उन्होंने भरतपुर के जाट नेता बदनसिंह की मदद की और जाटों की अपनी ही एक सेना बनवा डाली, जिनको पेशवा द्वारा मान्यता भी दिलवा दी गयी और 5000 की मनसबदारी भी दिलवा दी गयी l
धीरे धीरे बदनसिंह ने अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया और दीना नाथ शर्मा के कहने पर समस्त जगहों से मुस्लिम TAXES से पाबंदी हटवाने लगे l
जयपुर के महाराजा निसहाय हो गए क्योंकि पेशवा से सीधे टकराव उनके लिए सम्भव नहीं था l
इन्हीं दिनों ब्रिजघाट तक का क्षेत्र जाटों द्वारा मुक्त करवा लिया गया ..जिसका नाम रखा गया गढ़मुक्तेश्वर
बदन सिंह और राजा सूरजमल ने बहुत से क्षेत्रों पर अपना प्रभाव स्थापित किया और मुस्लिम अत्याचारों से मुक्ति दिलवाने का कार्य किया l
फिर भी ऐसी समस्याएं यदा कडा सामने आ ही जाती थीं, की कई कई जगहों पर मुस्लिम लोग हिन्दुओं को घेरकर उनसे TAX लेते थे या फिर संस्कारों के कार्यों में विघ्न पैदा करते थे l
इस समस्या से निपटने के लिए आगे चल कर बदनसिंह के बाद राजा सूरजमल ने गंगा-महायज्ञ का आयोजन किया, जिसमे गंगोत्री से 11000 कलश मंगवाए गए गंगा जल के और उन्हें भरतपुर के पास ही सुजान गंगा के नाम से स्थापित करवाया और सभी देवी देवताओं को स्थापित करवाया गया और बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया गया l
सुजान गंगा पर आने वाले कई वर्षों तक संस्कारों के कार्य होते रहे l
1947 के बाद नेहरु और SICKULAR जमात ने मिल कर सुजान गंगा का अस्तित्व समाप्त कर दिया, उसमे आसपास के सारे गंदे नाले मिलवा दिए और आसपास की फेक्टरियों का गंदा पानी आदि उसमे गिरवा दिया l
आसपास के लोग मल-मूत्र त्याग करने लगे l
इसी वर्ष हुए एक सर्वे के अनुसार सुजान गंगा के चारों और 650 से ज्यादा लोगों द्वारा प्रतिदिन मल-मूत्र त्याग किया जाता है l
आप सबसे विनम्र अनुरोश है की अपने इतिहास को जानें, जो की आवश्यक है की अपने पूर्वजों के इतिहास जो जानें और समझने का प्रयास करें.... उनके द्वारा स्थापित किये गए सिद्धांतों को जीवित रखें l
जिस सनातन संस्कृति को जीवित रखने के लिए और अखंड भारत की सीमाओं की सीमाओं की रक्षा हेतु हमारे असंख्य पूर्वजों ने अपने शौर्य और पराक्रम से अनेकों बार अपने प्राणों तक की आहुति दी गयी हो, उसे हम किस प्रकार आसानी से भुलाते जा रहे हैं l
सीमाएं उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगी ..... जो सदैव संघर्षरत रहेंगे l
जो लड़ना ही भूल जाएँ वो न स्वयं सुरक्षित रहेंगे न ही अपने राष्ट्र को सुरक्षित बना पाएंगे l
महाराजा सुहेलदेव के पराक्रम की कथा
महमूद गजनवी के उत्तरी भारत को १७ बार लूटने व बर्बाद करने के कुछ समय बाद उसका भांजा सलार गाजी भारत को दारूल इस्लाम बनाने के उद्देश्य से भारत पर चढ़ आया । वह पंजाब ,सिंध, आज के उत्तर प्रदेश को रोंद्ता हुआ बहराइच तक जा पंहुचा। रास्ते में उसने लाखों हिन्दुओं का कत्लेआम कराया,लाखों हिंदू औरतों के बलात्कार हुए, हजारों मन्दिर तोड़ डाले। राह में उसे एक भी ऐसाहिन्दू वीर नही मिला जो उसका मान मर्दन कर सके। इस्लाम की जेहाद की आंधी को रोक सके। बहराइच अयोध्या के पास है के राजा सुहेल देव पासी अपनी सेना के साथ सलार गाजी के हत्याकांड को रोकने के लिए जा पहुंचे । महाराजा व हिन्दू वीरों ने सलार गाजी व उसकी दानवी सेना को मूली गाजर की तरह काट डाला । सलार गाजी मारा गया। उसकी भागती सेना के एक एक हत्यारे को काट डाला गया। हिंदू ह्रदय राजा सुहेल देव पासी ने अपने धर्म का पालन करते हुए, सलार गाजी को इस्लाम के अनुसार कब्र में दफ़न करा दिया। कुछ समय पश्चात् तुगलक वंश के आने पर फीरोज तुगलक ने सलारगाजी को इस्लाम का सच्चा संत सिपाही घोषित करते हुए उसकी मजार बनवा दी।आज उसी हिन्दुओं के हत्यारे, हिंदू औरतों के बलातकारी ,मूर्ती भंजन दानव को हिंदू समाज एक देवता की तरह पूजता है। आज वहा बहराइच में उसकी मजार पर हर साल उर्स लगता हँ और उस हिन्दुओ के हत्यारे की मजार पर सबसे ज्यादा हिन्दू ही जाते हँ
क्या कहा जाए ऐसे हिन्दुओ को............?
सलार गाजी हिन्दुओं का गाजी बाबा हो गया है। हिंदू वीर शिरोमणि सुहेल देव पासी सिर्फ़ पासी समाज का हीरो बनकर रह गएँ है। और सलार गाजी हिन्दुओं का भगवन बनकर हिन्दू समाज का पूजनीय हो गया है।
महाराजा सुहेलदेव के पराक्रम की कथा कुछ इस प्रकार से है -
1001 ई0 से लेकर 1025 ई0 तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा, थानेसर, कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भान्जे सैयद सालार मसूद गाजी ने भी भाग लिया था। 1030 ई. में महमूद गजनबी की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इस्लाम का विस्तार करने की जिम्मेदारी मसूद ने अपने कंधो पर ली लेकिन 10 जून, 1034 ई0 को बहराइच की लड़ाई में वहां के शासक महाराजा सुहेलदेव के हाथों वह डेढ़ लाख जेहादी सेना के साथ मारा गया। इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद भारतीय शूरवीरों का ऐसा आतंक विश्व में व्याप्त हो गया कि उसके बाद आने वाले 150 वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ।
ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी जिसका प्रारंभिक नाम भरवाइच था। इसी कारण इन्हे बहराइच नरेश के नाम से भी संबोधित किया जाता था। इन्हीं महाराजा प्रसेनजित को माघ मांह की बसंत पंचमी के दिन 990 ई. को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम सुहेलदेव रखा गया। अवध गजेटीयर के अनुसार इनका शासन काल 1027 ई. से 1077 तक स्वीकार किया गया है। वे जाति के पासी थे, राजभर अथवा जैन, इस पर सभी एकमत नही हैं।
महाराजा सुहेलदेव का साम्राज्य पूर्व में गोरखपुर तथा पश्चिम में सीतापुर तक फैला हुआ था। गोंडा बहराइच, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव व लखीमपुर इस राज्य की सीमा के अंतर्गत समाहित थे। इन सभी जिलों में राजा सुहेल देव के सहयोगी पासी राजा राज्य करते थे जिनकी संख्या 21 थी। ये थे -1. रायसायब 2. रायरायब 3. अर्जुन 4. भग्गन 5. गंग 6. मकरन 7. शंकर 8. करन 9. बीरबल 10. जयपाल 11. श्रीपाल 12. हरपाल 13. हरकरन 14. हरखू 15. नरहर 16. भल्लर 17. जुधारी 18. नारायण 19. भल्ला 20. नरसिंह तथा 21. कल्याण ये सभी वीर राजा महाराजा सुहेल देव के आदेश पर धर्म एवं राष्ट्ररक्षा हेतु सदैव आत्मबलिदान देने के लिए तत्पर रहते थे। इनके अतिरिक्त राजा सुहेल देव के दो भाई बहरदेव व मल्लदेव भी थे जो अपने भाई के ही समान वीर थे। तथा पिता की भांति उनका सम्मान करते थे।
महमूद गजनवी की मृत्य के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा। उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। एक माह तक चले इस युद्व ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर रख दिया वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार साहू, सालार सैफुद्दीन, अमीर सैयद एजाजुद्वीन, मलिक दौलत मिया, रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह आदि एक बड़ी धुड़सवार सेना के साथ मसूद की सहायता को आ गए। पुनः भयंकर युद्व प्रारंभ हो गया जिसमें दोनों ही पक्षों के अनेक योद्धा हताहत हुए। इस लड़ाई के दौरान राय महीपाल व राय हरगोपाल ने अपने धोड़े दौड़ाकर मसूद पर गदे से प्रहार किया जिससे उसकी आंख पर गंभीर चोट आई तथा उसके दो दाँत टूट गए। हालांकि ये दोनों ही वीर इस युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो गए लेकिन उनकी वीरता व असीम साहस अद्वितीय थी। मेरठ का राजा हरिदत्त मुसलमान हो गया तथा उसने मसूद से संधि कर ली यही स्थिति बुलंदशहर व बदायूं के शासकों की भी हुई। कन्नौज का शासक भी मसूद का साथी बन गया। अतः सालार मसूद ने कन्नौज को अपना केंद्र बनाकर हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएं भेजना प्रारंभ किया। इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं सालार मसूद सप्तॠषि (सतरिख) की ओर बढ़ा। मिरआते मसूदी के विवरण के अनुसार सतरिख (बाराबंकी) हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल था। एक किवदंती के अनुसार इस स्थान पर भगवान राम व लक्ष्मण ने शिक्षा प्राप्त की थी। यह सात ॠषियों का स्थान था, इसीलिए इस स्थान का सप्तऋर्षि पड़ा था, जो धीरे-धीरे सतरिख हो गया। सालार मसूद विलग्राम, मल्लावा, हरदोई, संडीला, मलिहाबाद, अमेठी व लखनऊ होते हुए सतरिख पहुंचा। उसने अपने गुरू सैयद इब्राहीम बारा हजारी को धुंधगढ़ भेजा क्योंकि धुंधगढ क़े किले में उसके मित्र दोस्त मोहम्मद सरदार को राजा रायदीन दयाल व अजय पाल ने घेर रखा था। इब्राहिम बाराहजारी जिधर से गुजरते गैर मुसलमानों का बचना मुस्किल था। बचता वही था जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था।
आइन - ए - मसूदी के अनुसार – निशान सतरिख से लहराता हुआ बाराहजारी का। चला है धुंधगढ़ को काकिला बाराहजारी का मिला जो राह में मुनकिर उसे दे उसे दोजख में पहुचाया। बचा वह जिसने कलमा पढ़ लिया बारा हजारी का। इस लड़ाई में राजा दीनदयाल व तेजसिंह बड़ी ही बीरता से लड़े लेकिन वीरगति को प्राप्त हुए। परंतु दीनदयाल के भाई राय करनपाल के हाथों इब्राहीम बाराहजारी मारा गया। कडे क़े राजा देव नारायन और मानिकपुर के राजा भोजपात्र ने एक नाई को सैयद सालार मसूद के पास भेजा कि वह विष से बुझी नहन्नी से उसके नाखून काटे, ताकि सैयद सालार मसूद की इहलीला समाप्त हो जायें लेकिन इलाज से वह बच गया। इस सदमें से उसकी माँ खुतुर मुअल्ला चल बसी। इस प्रयास के असफल होने के बाद कडे मानिकपुर के राजाओं ने बहराइच के राजाओं को संदेश भेजा कि हम अपनी ओर से इस्लामी सेना पर आक्रमण करें और तुम अपनी ओर से।
इस प्रकार हम इस्लामी सेना का सफाया कर देगें। परंतु संदेशवाहक सैयद सालार के गुप्तचरों द्वारा बंदी बना लिए गए। इन संदेशवाहकों में दो ब्राह्मण और एक नाई थे। ब्राह्मणों को तो छोड़ दिया गया लेकिन नाई को फांसी दे दी गई इस भेद के खुल जाने पर मसूद के पिता सालार साहु ने एक बडी सेना के साथ कड़े मानिकपुर पर धावा बोल दिया। दोनों राजा देवनारायण व भोजपत्र बडी वीरता से लड़ें लेकिन परास्त हुए। इन राजाओं को बंदी बनाकर सतरिख भेज दिया गया। वहॉ से सैयद सालार मसूद के आदेश पर इन राजाओं को सालार सैफुद्दीन के पास बहराइच भेज दिया गया। जब बहराइज के राजाओं को इस बात का पता चला तो उन लोगो ने सैफुद्दीन को धेर लिया। इस पर सालार मसूद उसकी सहायता हेतु बहराइच की ओर आगें बढे। इसी बीच अनके पिता सालार साहू का निधन हो गया।
बहराइच के पासी राजा भगवान सूर्य के उपासक थे। बहराइच में सूर्यकुंड पर स्थित भगवान सूर्य के मूर्ति की वे पूजा करते थे। उस स्थान पर प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास मे प्रथम रविवार को, जो बृहस्पतिवार के बाद पड़ता था एक बड़ा मेला लगता था यह मेला सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा प्रत्येक रविवार को भी लगता था। वहां यह परंपरा काफी प्राचीन थी। बालार्क ऋषि व भगवान सूर्य के प्रताप से इस कुंड मे स्नान करने वाले कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाया करते थे। बहराइच को पहले ब्रह्माइच के नाम से जाना जाता था। सालार मसूद के बहराइच आने के समाचार पाते ही बहराइच के राजा गण – राजा रायब, राजा सायब, अर्जुन भीखन गंग, शंकर, करन, बीरबर, जयपाल, श्रीपाल, हरपाल, हरख्, जोधारी व नरसिंह महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में लामबंद हो गये। ये राजा गण बहराइच शहर के उत्तर की ओर लगभग आठ मील की दूरी पर भकला नदी के किनारे अपनी सेना सहित उपस्थित हुए। अभी ये युद्व की तैयारी कर ही रहे थे कि सालार मसूद ने उन पर रात्रि आक्रमण (शबखून) कर दिया। मगरिब की नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती हुई हिंदु सेना पर आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई मे सालार मसूद बिजयी रहा। पहली लड़ार्ऌ मे परास्त होने के पश्चात पुनः अगली लडार्ऌ हेतु हिंदू सेना संगठित होने लगी उन्होने रात्रि आक्रमण की संभावना पर ध्यान नही दिया। उन्होने राजा सुहेलदेव के परामर्श पर आक्रमण के मार्ग में हजारो विषबुझी कीले अवश्य धरती में छिपा कर गाड़ दी। ऐसा रातों रात किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जब मसूद की धुडसवार सेना ने पुनः रात्रि आक्रमण किया तो वे इनकी चपेट मे आ गए। हालाकि हिंदू सेना इस युद्व मे भी परास्त हो गई लेकिन इस्लामी सेना के एक तिहायी सैनिक इस युक्ति प्रधान युद्ध मे मारे गए।
भारतीय इतिहास मे इस प्रकार युक्तिपूर्वक लड़ी गई यह एक अनूठी लड़ाई थी। दो बार धोखे का शिकार होने के बाद हिंदू सेना सचेत हो गई तथा महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में निर्णायक लड़ार्ऌ हेतु तैयार हो गई। कहते है इस युद्ध में प्रत्येक हिंदू परिवार से युवा हिंदू इस लड़ार्ऌ मे सम्मिलित हुए। महाराजा सुहेलदेव के शामिल होने से हिंदूओं का मनोबल बढ़ा हुआ था। लड़ाई का क्षेत्र चिंतौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था।
जून, 1034 ई. को हुई इस लड़ाई में सालार मसूद ने दाहिने पार्श्व (मैमना) की कमान मीरनसरूल्ला को तथा बाये पार्श्व (मैसरा) की कमान सालार रज्जब को सौपा तथा स्वयं केंद्र (कल्ब) की कमान संभाली तथा भारतीय सेना पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इससे पहले इस्लामी सेना के सामने हजारो गायों व बैलो को छोड़ा गया ताकि हिंदू सेना प्रभावी आक्रमण न कर सके लेकिन महाराजा सुहेलदेव की सेना पर इसका कोई भी प्रभाव न पड़ा। वे भूखे सिंहों की भाति इस्लामी सेना पर टूट पडे मीर नसरूल्लाह बहराइच के उत्तर बारह मील की दूरी पर स्थित ग्राम दिकोली के पास मारे गए। सैयर सालार समूद के भांजे सालार मिया रज्जब बहराइच के पूर्व तीन कि. मी. की दूरी पर स्थित ग्राम शाहपुर जोत यूसुफ के पास मार दिये गए। इनकी मृत्य 8 जून, 1034 ई 0 को हुई। अब भारतीय सेना ने राजा करण के नेतृत्व में इस्लामी सेना के केंद्र पर आक्रमण किया जिसका नेतृत्व सालार मसूद स्वंय कर कहा था। उसने सालार मसूद को धेर लिया। इस पर सालार सैफुद्दीन अपनी सेना के साथ उनकी सहायता को आगे बढे भयकर युद्व हुआ जिसमें हजारों लोग मारे गए। स्वयं सालार सैफुद्दीन भी मारा गया उसकी समाधि बहराइच-नानपारा रेलवे लाइन के उत्तर बहराइच शहर के पास ही है। शाम हो जाने के कारण युद्व बंद हो गया और सेनाएं अपने शिविरों में लौट गई।
10 जून, 1034 को महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया। इस युद्ध में सालार मसूद अपनी धोड़ी पर सवार होकर बड़ी वीरता के साथ लड़ा लेकिन अधिक देर तक ठहर न सका। राजा सुहेलदेव ने शीध्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा जिससे उसका प्राणांत हो गया। इसके दूसरे हीं दिन शिविर की देखभाल करने वाला सालार इब्राहीम भी बचे हुए सैनिको के साथ मारा गया। सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजा सुहेल देव ने विजय पर्व मनाया और इस महान विजय के उपलक्ष्य में कई पोखरे भी खुदवाए। वे विशाल ”विजय स्तंभ” का भी निर्माण कराना चाहते थे लेकिन वे इसे पूरा न कर सके। संभवतः यह वही स्थान है जिसे एक टीले के रूप मे श्रावस्ती से कुछ दूरी पर इकोना-बलरामपुर राजमार्ग पर देखा जा सकता है।