Saturday, May 31, 2014






पोरस के हाथों धूल चाटा हुआ अलैक्जेंडर बन बैठा विश्व विजेता सिकंदर
जब पोरस ने सिकन्दर(Alexander) के सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतारा...
जितना बड़ा अन्याय और धोखा इतिहासकारों ने महान पौरस के साथ किया है उतना बड़ा अन्याय इतिहास में शायद ही किसी के साथ हुआ होगा।एक महान नीतिज्ञ,दूरदर्शी,शक्तिशाली वीर विजयी राजा को निर्बल और पराजित राजा बना दिया गया....
चूँकि सिकन्दर पूरे यूनान,ईरान,ईराक,बैक्ट्रिया आदि को जीतते हुए आ रहा था इसलिए भारत में उसके पराजय और अपमान को यूनानी इतिहासकार सह नहीं सके और अपने आपको दिलासा देने के लिए अपनी एक मन-गढंत कहानी बनाकर उस इतिहास को लिख दिए जो वो लिखना चाह रहे थे या कहें कि जिसकी वो आशा लगाए बैठे थे..यह ठीक वैसा ही है जैसा कि हम जब कोई बहुत सुखद स्वप्न देखते हैं और वो स्वप्न पूरा होने के पहले ही हमारी नींद टूट जाती है तो हम फिर से सोने की कोशिश करते हैं और उस स्वप्न में जाकर उस कहानी को पूरा करने की कोशिश करते हैं जो अधूरा रह गया था.. आलसीपन तो भारतीयों में इस तरह हावी है कि भारतीय इतिहासकारों ने भी बिना सोचे-समझे उसी यूनानी इतिहास को लिख दिया...
कुछ हिम्मत ग्रीक के फिल्म-निर्माता ओलिवर स्टोन ने दिखाई है जो उन्होंने कुछ हद तक सिकन्दर की हार को स्वीकार किया है..फिल्म में दिखाया गया है कि एक तीर सिकन्दर का सीना भेद देती है और इससे पहले कि वो शत्रु के हत्थे चढ़ता उससे पहले उसके सहयोगी उसे ले भागते हैं.इस फिल्म में ये भी कहा गया है कि ये उसके जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी और भारतीयों ने उसे तथा उसकी सेना को पीछे लौटने के लिए विवश कर दिया..चूँकि उस फिल्म का नायक सिकन्दर है इसलिए उसकी इतनी सी भी हार दिखाई गई है तो ये बहुत है,नहीं तो इससे ज्यादा सच दिखाने पर लोग उस फिल्म को ही पसन्द नहीं करते..वैसे कोई भी फिल्मकार अपने नायक की हार को नहीं दिखाता है.......
अब देखिए कि भारतीय बच्चे क्या पढ़ते हैं इतिहास में--"सिकन्दर ने पौरस को बंदी बना लिया था..उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पौरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड..सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे..उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय,अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पौरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए..तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई.."
ये कितना बड़ा तमाचा है उन भारतीय इतिहासकारों के मुँह पर कि खुद विदेशी ही ऐसी फिल्म बनाकर सिकंदर की हार को स्वीकार कर रहे रहे हैं और हम अपने ही वीरों का इसतरह अपमान कर रहे हैं......!!
मुझे तो लगता है कि ये भारतीयों का विशाल हृदयतावश उनका त्याग था जो अपनी इतनी बड़ी विजय गाथा यूनानियों के नाम कर दी..भारत दयालु और त्यागी है यह बात तो जग-जाहिर है और इस बात का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है..?क्या ये भारतीय इतिहासकारों की दयालुता की परिसीमा नहीं है..? वैसे भी रखा ही क्या था इस विजय-गाथा में; भारत तो ऐसी कितनी ही बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ जीत चुका है कितने ही अभिमानियों का सर झुका चुका है फिर उन सब विजय गाथाओं के सामने इस विजय-गाथा की क्या औकात.....है ना..?? उस समय भारत में पौरस जैसे कितने ही राजा रोज जन्मते थे और मरते थे तो ऐसे में सबका कितना हिसाब-किताब रखा जाय;वो तो पौरस का सौभाग्य था जो उसका नाम सिकन्दर के साथ जुड़ गया और वो भी इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया(भले ही हारे हुए राजा के रुप में ही सही) नहीं तो इतिहास पौरस को जानती भी नहीं..
इतिहास सिकन्दर को विश्व-विजेता घोषित करती है पर अगर सिकन्दर ने पौरस को हरा भी दिया था तो भी वो विश्व-विजेता कैसे बन गया..? पौरस तो बस एक राज्य का राजा था..भारत में उस तरक के अनेक राज्य थे तो पौरस पर सिकन्दर की विजय भारत की विजय तो नहीं कही जा सकती और भारत तो दूर चीन,जापान जैसे एशियाई देश भी तो जीतना बाँकी ही था फिर वो विश्व-विजेता कहलाने का अधिकारी कैसे हो गया...?
जाने दीजिए....भारत में तो ऐसे अनेक राजा हुए जिन्होंने पूरे विश्व को जीतकर राजसूय यज्य करवाया था पर बेचारे यूनान के पास तो एक ही घिसा-पिटा योद्धा कुछ हद तक है ऐसा जिसे विश्व-विजेता कहा जा सकता है....तो.! ठीक है भाई यूनान वालों,संतोष कर लो उसे विश्वविजेता कहकर...!
महत्त्वपूर्ण बात ये कि सिकन्दर को सिर्फ विश्वविजेता ही नहीं बल्कि महान की उपाधि भी प्रदान की गई है और ये बताया जाता है कि सिकन्दर बहुत बड़ा हृदय वाला दयालु राजा था ताकि उसे महान घोषित किया जा सके क्योंकि सिर्फ लड़ कर लाखों लोगों का खून बहाकर एक विश्व-विजेता को महान की उपाधि नहीं दी सकती ना ; उसके अंदर मानवता के गुण भी होने चाहिए.इसलिए ये भी घोषित कर दिया गया कि सिकन्दर विशाल हृदय वाला एक महान व्यक्ति था..पर उसे महान घोषित करने के पीछे एक बहुत बड़ा उद्देश्य छुपा हुआ है और वो उद्देश्य है सिकन्दर की पौरस पर विजय को सिद्ध करना...क्योंकि यहाँ पर सिकन्दर की पौरस पर विजय को तभी सिद्ध किया जा सकता है जब यह सिद्ध हो जाय कि सिकन्दर बड़ा हृदय वाला महान व्यक्ति था..
अरे अगर सिकन्दर बड़ा हृदय वाला व्यक्ति होता तो उसे धन की लालच ना होती जो उसे भारत तक ले आई थी और ना ही धन के लिए इतने लोगों का खून बहाया होता उसने..इस बात को उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर को भारत के धन(सोने,हीरे-मोतियों) से लोभ था.. यहाँ ये बात सोचने वाली है कि जो व्यक्ति धन के लिए इतनी दूर इतना कठिन रास्ता तय करके भारत आ जाएगा वो पौरस की वीरता से खुश होकर पौरस को जीवन-दान भले ही दे देगा और ज्यादा से ज्यादा उसकी मूल-भूमि भले ही उसे सौंप देगा पर अपना जीता हुआ प्रदेश पौरस को क्यों सौंपेगा..और यहाँ पर यूनानी इतिहासकारों की झूठ देखिए कैसे पकड़ा जाती है..एक तरफ तो पौरस पर विजय सिद्ध करने के लिए ये कह दिया उन्होंने कि सिकन्दर ने पौरस को उसका तथा अपना जीता हुआ प्रदेश दे दिया दूसरी तरफ फिर सिकन्दर के दक्षिण दिशा में जाने का ये कारण देते हैं कि और अधिक धन लूटने तथा और अधिक प्रदेश जीतने के लिए सिकन्दर दक्षिण की दिशा में गया...बताइए कि कितना बड़ा कुतर्क है ये....! सच्चाई ये थी कि पौरस ने उसे उत्तरी मार्ग से जाने की अनुमति ही नहीं दी थी..ये पौरस की दूरदर्शिता थी क्योंकि पौरस को शक था कि ये उत्तर से जाने पर अपनी शक्ति फिर से इकट्ठा करके फिर से हमला कर सकता है जैसा कि बाद में मुस्लिम शासकों ने किया भी..पौरस को पता था कि दक्षिण की खूँखार जाति सिकन्दर को छोड़ेगी नहीं और सच में ऐसा हुआ भी...उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर की सेना भारत की खूँखार जन-जाति से डरती है ..अब बताइए कि जो पहले ही डर रहा हो वो अपने जीते हुए प्रदेश यनि उत्तर की तरफ से वापस जाने के बजाय मौत के मुँह में यनि दक्षिण की तरफ से क्यों लौटेगा तथा जो व्यक्ति और ज्यादा प्रदेश जीतने के लिए उस खूँखार जनजाति से भिड़ जाएगा वो अपना पहले का जीता हुआ प्रदेश एक पराजित योद्धा को क्यों सौंपेगा....? और खूँखार जनजाति के पास कौन सा धन मिलने वाला था उसे.....?
अब देखिए कि सच्चाई क्या है....
जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.अम्भि का पौरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमण से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा..अभिसार के लोग तटस्थ रह गए..इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर तथा अम्भि की मिली-जुली सेना का सामना किया.."प्लूटार्च" के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पौरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से बहुत ही अधिक थी..सिकन्दर की सहायता फारसी सैनिकों ने भी की थी..कहा जाता है कि इस युद्ध के शुरु होते ही पौरस ने महाविनाश का आदेश दे दिया उसके बाद पौरस के सैनिकों ने तथा हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिकों के सर पर चढ़े विश्वविजेता के भूत को उतार कर रख दिया..पोरस के हाथियों द्वारा यूनानी सैनिकों में उत्पन्न आतंक का वर्णन कर्टियस ने इस तरह से किया है--इनकी तुर्यवादक ध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे वे बिगड़कर भाग उठते थे अपितु घुड़सवारों के हृदय भी दहला देती थी..इन पशुओं ने ऐसी भगदड़ मचायी कि अनेक विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके.उन पशुओं ने कईयों को अपने पैरों तले रौंद डाला और सबसे हृदयविदारक दृश्य वो होता था जब ये स्थूल-चर्म पशु अपनी सूँड़ से यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था,उसको अपने उपर वायु-मण्डल में हिलाता था और उस सैनिक को अपने आरोही के हाथों सौंप देता था जो तुरन्त उसका सर धड़ से अलग कर देता था.इन पशुओं ने घोर आतंक उत्पन्न कर दिया था.....
इसी तरह का वर्णन "डियोडरस" ने भी किया है --विशाल हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए..उन्होंने अपने पैरों तले बहुत सारे सैनिकों की हड्डियाँ-पसलियाँ चूर-चूर कर दी.हाथी इन सैनिकों को अपनी सूँड़ों से पकड़ लेते थे और जमीन पर जोर से पटक देते थे..अपने विकराल गज-दन्तों से सैनिकों को गोद-गोद कर मार डालते थे...
इन पशुओं का आतंक उस फिल्म में भी दिखाया गया है..
अब विचार करिए कि डियोडरस का ये कहना कि उन हाथियों में अपार बल था और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए ये क्या सिद्ध करता है..फिर "कर्टियस" का ये कहना कि इन पशुओं ने आतंक मचा दिया था ये क्या सिद्ध करता है...?
अफसोस की ही बात है कि इस तरह के वर्णन होते हुए भी लोग यह दावा करते हैं कि पौरस को पकड़ लिया गया और उसके सेना को शस्त्र त्याग करने पड़े...
एक और विद्वान ई.ए. डब्ल्यू. बैज का वर्णन देखिए-उनके अनुसार झेलम के युद्ध में सिकन्दर की अश्व-सेना का अधिकांश भाग मारा गया था.सिकन्दर ने अनुभव कर लिया कि यदि अब लड़ाई जारी रखूँगा तो पूर्ण रुप से अपना नाश कर लूँगा.अतः सिकन्दर ने पोरस से शांति की प्रार्थना की -"श्रीमान पोरस मैंने आपकी वीरता और सामर्थ्य स्वीकार कर ली है..मैं नहीं चाहता कि मेरे सारे सैनिक अकाल ही काल के गाल में समा जाय.मैं इनका अपराधी हूँ,....और भारतीय परम्परा के अनुसार ही पोरस ने शरणागत शत्रु का वध नहीं किया.----ये बातें किसी भारतीय द्वारा नहीं बल्कि एक विदेशी द्वारा कही गई है..
और इसके बाद भी अगर कोई ना माने तो फिर हम कैसे मानें कि पोरस के सिर को डेरियस के सिर की ही भांति काट लाने का शपथ लेकर युद्ध में उतरे सिकन्दर ने न केवल पोरस को जीवन-दान दिया बल्कि अपना राज्य भी दिया...
सिकन्दर अपना राज्य उसे क्या देगा वो तो पोरस को भारत के जीते हुए प्रदेश उसे लौटाने के लिए विवश था जो छोटे-मोटे प्रदेश उसने पोरस से युद्ध से पहले जीते थे...(या पता नहीं जीते भी थे या ये भी यूनानियों द्वारा गढ़ी कहानियाँ हैं)
इसके बाद सिकन्दर को पोरस ने उत्तर मार्ग से जाने की अनुमति नहीं दी.विवश होकर सिकन्दर को उस खूँखार जन-जाति के कबीले वाले रास्ते से जाना पड़ा जिससे होकर जाते-जाते सिकन्दर इतना घायल हो गया कि अंत में उसे प्राण ही त्यागने पड़े..इस विषय पर "प्लूटार्च" ने लिखा है कि मलावी नामक भारतीय जनजाति बहुत खूँखार थी..इनके हाथों सिकन्दर के टुकड़े-टुकड़े होने वाले थे लेकिन तब तक प्यूसेस्तस और लिम्नेयस आगे आ गए.इसमें से एक तो मार ही डाला गया और दूसरा गम्भीर रुप से घायल हो गया...तब तक सिकन्दर के अंगरक्षक उसे सुरक्षित स्थान पर लेते गए..
स्पष्ट है कि पोरस के साथ युद्ध में तो इनलोगों का मनोबल टूट ही चुका था रहा सहा कसर इन जनजातियों ने पूरी कर दी थी..अब इनलोगों के अंदर ये तो मनोबल नहीं ही बचा था कि किसी से युद्ध करे पर इतना भी मनोबल शेष ना रह गया था कि ये समुद्र मार्ग से लौटें...क्योंकि स्थल मार्ग के खतरे को देखते हुए सिकन्दर ने समुद्र मार्ग से जाने का सोचा और उसके अनुसंधान कार्य के लिए एक सैनिक टुकड़ी भेज भी दी पर उनलोगों में इतना भी उत्साह शेष ना रह गया था फलतः वे बलुचिस्तान के रास्ते ही वापस लौटे....
अब उसके महानता के बारे में भी कुछ विद्वानों के वर्णन देखिए...
एरियन के अनुसार जब बैक्ट्रिया के बसूस को बंदी बनाकर सिकन्दर के सम्मुख लाया गया तब सिकन्दर ने अपने सेवकों से उसको कोड़े लगवाए तथा उसके नाक और कान काट कटवा दिए गए.बाद में बसूस को मरवा ही दिया गया.सिकन्दर ने कई फारसी सेनाध्यक्षों को नृशंसतापूर्वक मरवा दिया था.फारसी राजचिह्नों को धारण करने पर सिकन्दर की आलोचना करने के लिए उसने अपने ही गुरु अरस्तु के भतीजे कालस्थनीज को मरवा डालने में कोई संकोच नहीं किया.क्रोधावस्था में अपने ही मित्र क्लाइटस को मार डाला.उसके पिता का विश्वासपात्र सहायक परमेनियन भी सिकन्दर के द्वारा मारा गया था..जहाँ पर भी सिकन्दर की सेना गई उसने समस्त नगरों को आग लगा दी,महिलाओं का अपहरण किया और बच्चों को भी तलवार की धार पर सूत दिया..ईरान की दो शाहजादियों को सिकन्दर ने अपने ही घर में डाल रखा था.उसके सेनापति जहाँ-कहीं भी गए अनेक महिलाओं को बल-पूर्वक रखैल बनाकर रख लिए...
तो ये थी सिकन्दर की महानता....इसके अलावे इसके पिता फिलिप की हत्या का भी शक इतिहास ने इसी पर किया है कि इसने अपनी माता के साथ मिलकर फिलिप की हत्या करवाई क्योंकि फिलिप ने दूसरी शादी कर ली थी और सिकन्दर के सिंहासन पर बैठने का अवसर खत्म होता दिख रहा था..इस बात में किसी को संशय नहीं कि सिकन्दर की माता फिलिप से नफरत करती थी..दोनों के बीच सम्बन्ध इतने कटु थे कि दोनों अलग होकर जीवन बीता रहे थे...इसके बाद इसने अपने सौतेले भाई को भी मार डाला ताकि सिंहासन का और कोई उत्तराधिकारी ना रहे...
तो ये थी सिकन्दर की महानता और वीरता....
इसकी महानता का एक और उदाहरण देखिए-जब इसने पोरस के राज्य पर आक्रमण किया तो पोरस ने सिकन्दर को अकेले-अकेले यनि द्वंद्व युद्ध का निमंत्रण भेजा ताकि अनावश्यक नरसंहार ना हो और द्वंद्व युद्ध के जरिए ही निर्णय हो जाय पर इस वीरतापूर्ण निमंत्रण को सिकन्दर ने स्वीकार नहीं किया...ये किमवदन्ती बनकर अब तक भारत में विद्यमान है.इसके लिए मैं प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं समझता हूँ..
अब निर्णय करिए कि पोरस तथा सिकन्दर में विश्व-विजेता कौन था..? दोनों में वीर कौन था..?दोनों में महान कौन था..?
यूनान वाले सिकन्दर की जितनी भी विजय गाथा दुनिया को सुना ले सच्चाई यही है कि ना तो सिकन्दर विश्वविजेता था ना ही वीर(पोरस के सामने) ना ही महान(ये तो कभी वो था ही नहीं)....
जिस पोरस ने सिकन्दर जो लगभग पूरा विश्व को जीतता हुआ आ रहा था जिसके पास उतनी बड़ी विशाल सेना थी जिसका प्रत्यक्ष सहयोग अम्भि ने किया था उस सिकन्दर के अभिमान को अकेले ही चकना-चूरित कर दिया,उसके मद को झाड़कर उसके सर से विश्व-विजेता बनने का भूत उतार दिया उस पोरस को क्या इतिहास ने उचित स्थान दिया है......!...?
भारतीय इतिहासकारों ने तो पोरस को इतिहास में स्थान देने योग्य समझा ही नहीं है.इतिहास में एक-दो जगह इसका नाम आ भी गया तो बस सिकन्दर के सामने बंदी बनाए गए एक निर्बल निरीह राजा के रुप में..नेट पर भी पोरस के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है.....
आज आवश्यकता है कि नेताओं को धन जमा करने से अगर अवकाश मिल जाय तो वे इतिहास को फिर से जाँचने-परखने का कार्य करवाएँ ताकि सच्चाई सामने आ सके और भारतीय वीरों को उसका उचित सम्मान मिल सके..मैं नहीं मानता कि जो राष्ट्र वीरों का इस तरह अपमान करेगा वो राष्ट्र ज्यादा दिन तक टिक पाएगा...मानते हैं कि ये सब घटनाएँ बहुत पुरानी हैं इसके बाद भारत पर हुए अनेक हमले के कारण भारत का अपना इतिहास तो विलुप्त हो गया और उसके बाद मुसलमान शासकों ने अपनी झूठी-प्रशंसा सुनकर आनन्द प्राप्त करने में पूरी इतिहास लिखवाकर खत्म कर दी और जब देश आजाद हुआ भी तो कांग्रेसियों ने इतिहास लेखन का काम धूर्त्त अंग्रेजों को सौंप दिया ताकि वो भारतीयों को गुलम बनाए रखने का काम जारी रखे और अंग्रेजों ने इतिहास के नाम पर काल्पनिक कहानियों का पुलिंदा बाँध दिया ताकि भारतीय हमेशा यही समझते रहें कि उनके पूर्वज निरीह थे तथा विदेशी बहुत ही शक्तिशाली ताकि भारतीय हमेशा मानसिक गुलाम बने रहें विदेशियों का,पर अब तो कुछ करना होगा ना..???
इस लेख से एक और बात सिद्ध होती है कि जब भारत का एक छोटा सा राज्य अगर अकेले ही सिकन्दर को धूल चटा सकता है तो अगर भारत मिलकर रहता और आपस में ना लड़ता रहता तो किसी मुगलों या अंग्रेजों में इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत का बाल भी बाँका कर पाता.कम से कम अगर भारतीय दुश्मनों का साथ ना देते तो भी उनमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वो भारत पर शासन कर पाते.भारत पर विदेशियों ने शासन किया है तो सिर्फ यहाँ की आपसी दुश्मनी के कारण..
भारत में अनेक वीर पैदा हो गए थे एक ही साथ और यही भारत की बर्बादी का कारण बन गया क्योंकि सब शेर आपस में ही लड़ने लगे...महाभारत काल में इतने सारे महारथी,महावीर पैदा हो गए थे तो महाभारत का विध्वंशक युद्ध हुआ और आपस में ही लड़ मरने के कारण भारत तथा भारतीय संस्कृति का विनाश हो गया उसके बाद कलयुग में भी वही हुआ..जब भी किसी जगह वीरों की संख्या ज्यादा हो जाएगी तो उस जगह की रचना होने के बजाय विध्वंश हो जाएगा...
पर आज जरुरत है भारतीय शेरों को एक होने की...........क्योंकि अभी भारत में शेरों की बहुत ही कमी है और जरुरत है भारत की पुनर्रचना करने की......




शिवाजी का पत्र- जयसिंह के नाम --
भारतीय इतिहास में दो ऐसे पत्र मिलते हैं जिन्हें दो विख्यात महापुरुषों ने दो कुख्यात व्यक्तिओं को लिखे थे.
इनमे पहिला पत्र"जफरनामा "कहलाता है.जिसे श्री गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब को भाई दया सिंह के हाथों भेजा था. यह दशम ग्रन्थ में शामिल है. इसमे कुल 130 पद हैं.
दूसरा पत्र शिवाजी ने आमेर के राजा जयसिंह को भेजा था. जो उसे 3 मार्च 1665 को मिल गया था.
इन दोनों पत्रों में यह समानताएं हैं की दोनों फारसी भाषा में शेर के रूप में लिखे गए हैं. दोनों की प्रष्ट भूमि और विषय एक जैसी है. दोनों में देश और धर्म के प्रति अटूट प्रेम प्रकट किया गया है.
शिवाजीकापत्र बरसों तक पटना साहेब के गुरुद्वारे के ग्रंथागार में रखा रहा, बाद में उसे "बाबू जगन्नाथ रत्नाकर" ने सन 1909 अप्रेल में काशी में काशी नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित किया था. बाद में "अमर स्वामी सरस्वती" ने उस पत्र का हिन्दी में पद्य और गद्य ने अनुवाद किया था. फिर सन 1985 में अमरज्योति प्रकाशन गाजियाबाद ने पुनः प्रकाशित किया था.
राजा जयसिंह आमेर का राजा था, वह उसी राजा मानसिंह का नाती था, जिसने अपनी बहिन अकबर से ब्याही थी. जयसिंह सन 1627 में गद्दी पर बैठा था और औरंगजेब का मित्र था. औरंगजेब ने उसे 4000 घुड सवारों का सेनापति बना कर "मिर्जा राजा" की पदवी दी थी.
औरंगजेब पूरे भारत में इस्लामी राज्य फैलाना चाहता था.लेकिन शिवाजी के कारण वह सफल नही हो रहा था. औरंगजेब चालाक और मक्कार था. उसने पाहिले तो शिवाजी से से मित्रता करनी चाही और दोस्ती के बदले शिवाजी से 23 किले मांगे. लेकिन शिवाजी उसका प्रस्ताव ठुकराते हुए 1664 में सूरत पर हमला कर दिया और मुगलों की वह सारी संपत्ति लूट ली जो उनहोंने हिन्दुओं से लूटी थी.
फिर औरंगजेब ने अपने मामा शाईश्ता खान को चालीस हजार की फ़ौज लेकर शिवाजी पर हमला करावा दिया और शिवाजी ने पूना के लाल महल में उसकी उंगलियाँ काट दीं और वह भाग गया. फिर औरंगजेब ने जयसिंह को कहा की वह शिवाजी को परास्त कर दे.
जयसिंह खुद को राम का वंशज मानता था. उसने युद्ध में जीत हासिल करने के लिए एक सहस्त्र चंडी यग्य भी कराया. शिवाजी को इसकी खबर मिल गयी थी जब उन्हें पता चला की औरंगजेब हिन्दुओं को हिन्दुओं से लड़ाना चाहता है. जिससे दोनों तरफ से हिन्दू ही मरेंगे. तब शिवाजी ने जयसिंह को समझाने के लिए जो पत्र भेजा था, उसके कुछ अंश हम आपके सामने प्रस्तुत कर रहे है -
1 -जिगरबंद फर्जानाये रामचंद -ज़ि तो गर्दने राजापूतां बुलंद .
हे रामचंद्र के वंशज ,तुमसे तो क्ष त्रिओं की इज्जत उंची हो रही है .
2 -शुनीदम कि बर कस्दे मन आमदी -ब फ़तहे दयारे दकन आमदी .
सूना है तुम दखन कि तरफ हमले के लिए आ रहे हो
3 -न दानी मगर कि ईं सियाही शवद-कज ईं मुल्को दीं रा तबाही शवद ..
तुम क्या यह नही जानते कि इस से देश और धर्म बर्बाद हो जाएगा.
4 -बगर चारा साजम ब तेगोतबर -दो जानिब रसद हिंदुआं रा जरर.
अगर मैं अपनी तलवार का प्रयोग करूंगा तो दोनों तरफ से हिन्दू ही मरेंगे
5 -बि बायद कि बर दुश्मने दीं ज़नी-बुनी बेख इस्लाम रा बर कुनी .
उचित तो यह होता कि आप धर्म दे दुश्मन इस्लाम की जड़ उखाड़ देते
6 -बिदानी कि बर हिन्दुआने दीगर -न यामद चि अज दस्त आं कीनावर .
आपको पता नहीं कि इस कपटी ने हिन्सुओं पर क्या क्या अत्याचार किये है
7 -ज़ि पासे वफ़ा गर बिदानी सखुन -चि कर्दी ब शाहे जहां याद कुन
इस आदमी की वफादारी से क्या फ़ायदा .तुम्हें पता नही कि इसने बाप शाहजहाँ के साथ क्या किया
8 -मिरा ज़हद बायद फरावां नमूद -पये हिन्दियो हिंद दीने हिनूद
हमें मिल कर हिंद देश हिन्दू धर्म और हिन्दुओं के लिए लड़ाना चाहिए
9 -ब शमशीरो तदबीर आबे दहम -ब तुर्की बतुर्की जवाबे दहम .
हमें अपनी तलवार और तदबीर से दुश्मन को जैसे को तैसा जवाब देना चाहिए
10 -तराज़ेम राहे सुए काम ख्वेश -फरोज़ेम दर दोजहाँ नाम ख्वेश
अगर आप मेरी सलाह मामेंगे तो आपका लोक परलोक नाम होगा .
इस पत्र से आप खुद अंदाजा कर सकते है. शिवाजी का देश और धर्म के साथ हिन्दुओ के प्रति कितना लगाव था. हमें इस बात पर गर्व होना चाहिए कि हम उनके अनुयायी है. हमें उनके जीवन से सीखना चाहिए. तभी हम सच्चे देशभक्त बन सकते हैं.


वायलीन का आविष्कार रावण ने किया था
रावण वेद ज्ञानी के साथ साथ अच्छा वास्तुकार ओर संगीतज्ञ भी था।
अगर मैं आपसे कहूँ कि रावण वॉयलिन बजाता था तो ? ... बजाता ही नहीं था बल्कि उसने 'कृष्ण यजुर्वेद' के भाष्य के अलावा वॉयलिन का आविष्कार भी किया था तो क्या आप मान लेंगे ? अरे Ra-1 की नहीं, असली रावण ,दशानन जी की बात कर रहा हूँ मैं !
... विस्तार में जानने के लिए नीचे पढे-
रावण हत्था प्रमुख रूप से राजस्थानऔर गुजरातमें प्रयोग में लाया जाता रहा है। यह राजस्थान का एक लोक वाद्य है। पौराणिक साहित्य और हिन्दूपरम्परा की मान्यता है कि ईसा से हजारो वर्ष पूर्व लंका के राजा रावणने इसका आविष्कार किया था और आज भी यह चलन में है। रावण के ही नाम पर इसे रावण हत्था या रावण हस्त वीणा कहा जाता है। यह संभव है कि वर्तमान में इसका रूप कुछ बदल गया हो लेकिन इसे देखकर ऐसा लगता नहीं है। कुछ लेखकों द्वारा इसे वायलिनका पूर्वज भी माना जाता है।
इसे धनुष जैसी मींड़ और लगभग डेढ़-दो इंच व्यास वाले बाँस से बनाया जाता है। एक अधकटी सूखी लौकी या नारियल के खोल पर पशुचर्म अथवा साँप के केंचुली को मँढ़ कर एक से चार संख्या में तार खींच कर बाँस के लगभग समानान्तर बाँधे जाते हैं। यह मधुर ध्वनि उत्पन्न करता है।





हिन्दु नगरी था फतेहपुर सीकरी
उत्तर भारत मे आगरा के दक्षिण पश्चिम मे 23 मील की दूरी पर स्थित है फतेहपुर सीकरी।आमतौर पर बच्चो को पढाया जाता है कि फतेहपुर सीकरी का निर्माण 1556 से 1605 ई. मे अकबर ने करवाया था जो कि सरासर झुठ ओर मनगणत बाते है।
असल मे फतेहपुर सीकरी अकबर के जन्म से भी पहले की थी।जिसे बाबर ने राणा सांगा से हडप लिया था।
england के विक्टोरिया ओर अल्ब्रट पुस्तकालय मे एक फोटो(चित्राकृति)है,जिसमे अकबर का बाप हुमायु फतेहपुर साकरी के एक किले मे बेठा है।उस समय तो अकबर का जन्म भी नही हुआ था,तो नगर बसाने का सवाल ही नही उठता।
1 फतेहपुर सीकरी मे 9 द्वार है जिनके नाम इस तरह है-लाल द्वार,आगरा द्वार,बोरपोत द्वार,चन्द्रपोल द्वार,टेहरी द्वार,ग्वालियर द्वार,चोर द्वार व अजमेरी द्वार।
इसके अलावा अन्य दो द्वार-फूलद्वार ओर मथूरा द्वार है।
इन सब द्वारो मे से कोई भी नाम ईस्लामिक नही है।
पोलद्वार मे पोल शब्द संस्कृत का अपभ्रंश है।जो कि परम्परागत हिन्दु किलो से जुडा है।
इसी तरह लाल द्वार पवित्र हिन्दु भगवा रंग को दर्शाता है,जबकि कोई मुस्लिम लाल नाम से कोई निर्माण ना कराता।यदि अकबर इनहे बनवाता तो अरबी नाम रखवाता ना कि हिन्दु।
फतेहपुर सीकरी मे अनेक मुस्लिम शिलालेख है लेकिन किसी मे अकबर द्वारा सीकरी का निर्माण करवाना नही वताया है।यहा एक सलीम चिश्ति का मकबरा है जो कि एक मन्दिर था जिसे तोडकर सलीम चिश्ती का मकबरा बना दिया,ज्यादातर ईस्लामिक सुफी हिन्दु मन्दिरो मे ही दफनाए है ताकि हिन्दुओ के धर्म स्थलो पर कब्जा किया जा सके।जैसे साई ने भी मरने के बाद एक मन्दिर मे दफन होने की इच्छा की थी,जबकि सारी जिन्दगी मस्जिद मे रहा।
इस नगर मे एक स्तम्भ है जिसका आकार अष्टकोणिय है जो कि पवित्र हिन्दु संरचना है,इसका एक ईस्लामी बादशाह क्यो बनवाएगा।
इसी नगर मे एक अनूप तालाब है।जिसकी खुदाई से पता चला है कि इस मे कुछ हिन्दु मुर्तिया ओर पवित्र चिन्ह एक कच्चे फर्श से छिपाये गये थे।अनुप तालाब के समीप विशाल रक्त प्रांगण है जिसमे एक प्रस्तरीय प्रागंण पर पुरातन हिन्दु खेल चोपड का चित्र है।
इसी प्रांगण मे एक हिन्दु ज्योतिष पीटिका है।
इसी नगर मे एक जल घडी पात्र मिला है जिसका उपयाग भारतीय ज्योतिष नक्षत्र,मुहुर्त देखने मे करते थे।आर्यभटीय ओर भास्कराचार्य के ग्रंथो मे इस घडी का उल्लेख है।
ख्वावगाह के उत्तरी प्राचीर मे एर जीर्ञ शीर्ण नोका का चित्र है जो कि भगवान राम द्वारा केवट की नाव मे सीता ,लक्ष्मण सहित गंगा पार करने का है।
सुनहरी महल नामक एक भवन के बरामदे के उत्तरी पश्चिमी खम्भे पर अधुरी अधुरी कृष्ण जी की आकृति है।
ख्वावगाह के ऊपर एक खिडकी है जिस पर एक चित्र है जो गोतमबुध्द सा है।
इसी नगर के एक स्नानगृह के पास स्वस्तिक का चिन्ह है जो प्राचीन वैदिक कालीन हिन्दु रचना है।
फतेहपुर के हाथी द्वार मे भी हिन्दुमूलक हाथी की प्रतिमा है इस तरह की शैली राजपुतो की थी।उदयपुर का सहेलियो का बाग,भरतपुर के किले के फाटक व अन्य गढो मे एसा देखा जा सकता है।दोलत खाने के आगरा की दिशा की तरफ एक छोटी मस्जिद है,जिसके सम्मुख एक गुम्बद युक्त मण्डल है जिसकी खुदाई मे एक दिग्गंबर जैन मुर्ति प्राप्त हुई।
फतेहपुर सीकरी के पास एक डाकघर के समीप खुदी हुई सुरंग मे एक बुध्द का प्रस्तर मिला ।
उपरोक्त प्रमाणो से सिध्द होता है कि अकबर ने सीकरी को नही बसाया था।ये मुस्लिमो द्वारा हिन्दुओ से हडपा गया था।
कोई भी मुस्लिम शासक ने इस देश मे कोई भी निर्माण नही करवाया बल्की पुरातन हिन्दु जेन बुध्द मंदिरो को नष्ट भ्रस्ट कर अपना आधिपतय किया था।
वन्दे मातरम।


शेरे हिन्द हिन्दुस्तान गौरव शेर सिहं राणा...
शेर सिहं राणा का जीवन परिचय इस लिंक पर देखे-http://en.m.wikipedia.org/wiki/Sher_Singh_Rana
शेर सिह राणा वह महान व्यक्ति है जो महाराजा पृथ्वीराज चौहान की अस्थियो को अफगानिस्तान से भारत लाया ओर उनका एक पुत्र के समान गंगा मे प्रवाहित कर कानपुर मे उनका समाधि स्थल बनवाया।
इतिहास अनुसार पृथ्वीराज चौहान ओर मोहम्मद गौरी मे तराईन का द्वितीय युध्द हुआ जिसमे छल ओर कपट से गौरी ने पृथ्वीराज को बंदी बनाकर गजनी ले गया ओर वहा उनको अंधाकर शारिरीक मानसिक यात्नाए देने लगा फिर दिल्ली से चंदबरदाई ने जाकर पृथ्वीराज की मदद की ओर गोरी को मार गिरवाया ओर स्वंय आपस मे एक दूसरे को मार गिया..
इस कथन को कुछ भारतीय इतिहासकारो जो कि सैकुलर थे या फिर नेहरू प्रजाति के थे उनहोने इस कथन को झूठ कहा ओर लोगो को भ्रम मे डालने लगे कि पृथ्वीराज तो गौरी से युध्द मे रण भूमि मे ही खत्म हो गए थे..इस तरह इतिहासकारो ने इस रहस्य को पहेली बना दिया..
(गजनी: यह महाराजा गजसिहं के द्वारा बसाया गया था इसलिए इसे गजनी कहते है,उनहे गौरी ने मार दिया ओर स्वयं गजनी का सुलतान बन गया)
लेकिन जब इन्डियन एयर लाईन को काठमांडू से हाईजैक कर आतंकियो द्वारा अफगान ले जाया गया तब उस विमान मे उपस्थित एक पत्रकार ने इस बात का खुलासा किया कि गजनी मे पृथ्वीराज,चन्द्र बरदाई ओर गौरी की कब्र बनी है ओर पृथ्वीराज की उस कब्र का अपमान किया जाता है..
पृथवीराज की अस्थियो का अपमान वहा का मुस्लिम समुदाय उन अस्थियो पर जूते मारता है ओर कभी कभी गौ बलि भी देते है..
फिर वे लोग गौरी की कब्र पर जा कर उसे चूमते है ओर अपना सिर झूकाते है..
पृथ्वीराज के अस्थि स्थल पर अरबी मे लिखा है कि सुलतान चौहान जिसने हमारे सुलतान गौरी को धोखे से मारा..इस खबर के बाद क्षत्रिय महासभा ने कई जगह धरने प्रदर्शन किए कि पृथ्वीराज की अस्थियो को भारत लाया जाए लेकिन सरकार इसमे सफल नही हुई या फिर सरकार ने कोई प्रयास ही नही किया..लेकिन तिहाड जैल मे बंद शेर सिहं राणा ने यह करने की ठानी वे 2004 मे तिहाड जैल से भागने मे सफल हुए ओर झारखंड जाकर संजय गुप्ता नाम से अपना फर्जी पहचान पत्र बनवाया..वहा से वे बांगलादेश चले गए..दिसंबर 2004 मे उनहोने मुबई से अफगानिस्तान का बीजा बनवाया चुकि उस समय दिल्ली से अफगान जाना आसान नही था तो वे दुबई से अफगानिस्तान पहुचे..वहा वे कठिन परिश्रम कर पृथ्वीराज चौहान की अस्थियो को मार्च 2005 मे सफलता पूर्वक भारत ले आए..
हमने ऊपर जो चित्र लगाए है वे शेर सिहं राणा द्वारा बहुत सावधानीपूर्वक ओर सूझबूझ से लिए गए है क्युकि पृथ्वीराज चौहान की अस्थि सथल के आसपास के सारे घर तालिबानो के है जिनमे प्रत्येक घर मे 50 हथियार तो होगे ही..ऐसे मे वहा जाना किसी हिन्दु के लिए मौत के मुह मे जाने जैसा है....
शेर सिहं राणा ने इस कार्य को बडी सूझबूझ के साथ पूरा किया है वे वास्तव मे पृथ्वीराज के पुत्र थे...
राजपुत गौरव शेर सिहं राणा की जय..


जामा मस्जिद कही जाने वाली अहमदाबाद की वह इमारत प्राचिन अहमदाबाद की कुल देवी ओर राजदेवी भद्रकाली का मन्दिर था
-अहमदाबाद नगर को अहमदशाह के नाम पर अहमदाबाद कहते है इससे पूर्व इस नगर का नाम कर्णवती ओर अशावल था ।
अहमदशाह ने इस नगर के कई हिन्दु इमारतो ओर मन्दिरो को इस्लामी इमारते ओर मन्दिर मे बदला था।इनही मैसे एक है अहमदाबाद की जामा मस्जिद जो कि अहमदशाह के द्वारा क्षत विक्षत करने से पूर्व भद्रकाली मन्दिर था।इस मन्दिर मे आज भई द्वार मण्डल से लेकर अन्दर तक हिन्दु कला के दृश्न होते है
इस मस्जिद के मुख्य प्रार्थना स्थल मे पास पास सौ खम्भे है(फोटो मे भी देखा जा सकता है)जो केवल हिन्दु मन्दिरो मे होते है,यदि यह मस्जिद है तो नवाज के लिए खुला प्रागंण होना चाहिए।
इसी मस्जिद के प्राचिन पूजा गृह के गवाक्षो मे गढे हुए प्रस्तर पुष्प चिन्ह है ,जो लूटे हुए परिवर्तित स्मारको के सम्बन्ध मुस्लिम आक्रमणकारियो की ओर ही संकेत करता है।इस विशाल मन्दिर का एक बडा भाग आज कब्रिस्तान के रूप मे उपयोग मे होता है।
इस मस्जिद की संगतराशी मे पुष्प,जंजीर,घण्टिया ओर गवाक्षो जैसे अनैक हिन्दु लक्षण दिखाई देते है।
इस मन्दिर की कई प्रस्तर खण्डो को अहमदाबाद के आम रास्तो मे आक्रमण के समय सुरक्षित रखने के लिए गाड दिया गया था ।ये आज भी कुछ स्थानो पर आधे गडे या किसी के घर मकान मे पत्थर के रूप मे चुने हुए मिल जाएगे....
उपरोक्त कथन से यही सिध्द होता है कि जो लोग कहते है कि मुस्लिम शासको ने इस देश मे कई इमारतो का निर्माण करवाया था ओर भारत की स्थाप्त्य कला मे योगदान दिया था।तो ये पोस्ट उनके गाल पर एक तमाचा है क्युकि किसी भी मस्लिम शासक ने इस देश मे कोई भी निर्माण नही कराया था,वल्कि हिन्दु इमारतो मन्दिरो को हथ्या कर उनहे मकबरे,कब्रिस्तान,दरगाह,मस्जिदो मे बदला था ताकि हिन्दुधर्म को खत्म कर सके...
जय महाकाल...

Friday, May 30, 2014




इस्लामी शासन काल में षड्यंत्रिक TAX ..... और सनातन संस्कारों की हानि
इस्लामी आक्रमणों के 1200 वर्षों के इतिहास में धर्म की बहुत हानि हुई, सती प्रथा, बाल विवाह, जात पात, आदि जाने कितनी ही सामाजिक बुराइयां सनातन धर्म को छू गयीं, और काने कितनी ही विकृतियाँ सनातन धर्म को चोटिल करती रहीं l ऐसी ही कुछ बुराइयों के बारे में भारत वर्ष की इतिहास की पुस्तकों में पढ़ाया जाता है परन्तु उन्हें पढ़ कर लगता है की वो केवल उपरी ज्ञान हैं, और ज्यादातर बुराइयों को सनातन धर्म से जोड़ कर ही दिखा दिया जाता है, परन्तु ये नहीं बताया जाता की उन बुराइयों के असली कारण क्या थे, और किन कारणों से उन बुराइयों का उदय हुआ और विस्तार हुआ ?
सनातन संस्कृति के शास्त्रों के अनुसार में मनुष्यों को 16 संस्कारों के साथ अपना जीवन व्यतीत करने का आदेश दिया गया है, जिनके नियम और उद्देश्य अलग अलग हैं l इस्लामी आक्रमणों से पहले तक संस्कार प्रथा अपने नियमो के अनुसार निरंतर आगे बढ़ रही थी, परन्तु इस्लामी आक्रमणों के बाद और सफलतम अंग्रेजी स्वप्न्कार Lord McCauley ने संस्कार पद्धतियों को सनातन संस्कृति से पृथक सा ही कर दिया l
यदि सही शब्दों में कहूं तो शायाद संस्कार प्रथा लुप्तप्राय सी ही हो चुकी है l इस्लामी शासनों के कार्यकालों में किस प्रकार संस्कारों में कमी हुई इसके बारे में आप सबको कुछ बताना चाहता हूँ, कृपया ध्यान से पढ़ें और सबको पढ़ा कर जागरूक करें .... आप सबने इस्लामी शासन कालों में जजिया और महसूल के बारे में ही सुना होगा ....
परन्तु सोचने वाली बात है की क्या इस्लामी मानसिकता के अनुसार हिन्दुओं पर धर्मांतरण के लिए दबाव बनाने हेतु ये दो ही कर (TAX) काफी थे... ये सोचना ही हास्यापद होगा l इस्लामी शासन कालों में समस्त 16 संस्कारों पर TAX लगाया जाता था, जिसको की नेहरु, प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इतिहासकारों ने भारतीय शिक्षा पद्धति की इतिहास की पुस्तकों में जगह नहीं दी l ऐसे और भी बहुत से विषय हैं जिन पर यह बहस की जा सकती है, परन्तु वो किसी और दिन करेंगे l
अरब से जब इस्लामी आक्रमण प्रारम्भ हुए तो अपनी क्रूरता, वेह्शीपन, आक्रामकता, दरिंदगी, इरान, मिस्र, तुर्की, इराक, आदि सब विजय करते हुए सनातन संस्कृति को समाप्त करने मलेच्छों द्वारा ऋषि भूमि देव तुल्य अखंड भारत पर आक्रमण किये गए l लक्ष्य केवल एक था.... दारुल हर्ब को ... दारुल इस्लाम बनाने का
और इस लक्ष्य के लिए जिस नीचता पर उतरा जाए वो सब उचित थीं इस्लामी मानसिकता के अनुसार
ऐसी ही नीच मानसिकता के अनुसार जजिया और महसूल जैसे TAXES के बाद सनातन संस्कृति के 16 संस्कारों पर भी TAX लगाया गया l
संस्कारों पर TAX लगाने का मुख्य कारण यह था की सनातन धर्म के अनुयायी TAX के बोझ के कारण अपने संस्कारों से दूर हो जाएँ l धीरे धीरे इस प्रकार के षड्यंत्रों के कारण इस्लामी कट्टरपंथीयों द्वारा अपनाई गयी इस सोच का यह लक्ष्य सिद्ध होता गया l
धीरे धीरे समय ऐसा भी आया की कुछ लोग केवल आवश्यक संस्कारों को ही करवाने लगे, और कुछ लोग संस्कारों से पूर्णतया कट से गए l
सबसे पहले आता है गर्भाधान संस्कार .....
किसी सनातन धर्म की स्त्री द्वारा जब गर्भ धारण किया जाता था तो एक निश्चित TAX इलाके के मौलवी या इमाम के पास जमा किया जाता था और उसकी एक रसीद भी मिलती थी l यदि उस TAX को दिए बिना किसी भी सनातन धर्म के अनुसायी के घर में कोई सन्तान उत्पन्न होती थी तो उसे इस्लामी सैनिक उठा कर ले जाते थे और उसकी इस्लामी नियमो के अनुसार सुन्नत करके उसे मुसलमान बना दिया जाता था l
नामकरण संस्कार
नामकरण संस्कार का षड्यंत्र यदि देखा जाए तो सबसे महत्वपूर्ण है ...इस षड्यंत्र को समझने में
नामकरण संस्कार में जब किसी बच्चे का नाम रखा जाता था तो उन पर विभिन्न प्रकार के के TAX निर्धारित किये गए थे ...
उदाहरण के लिए .... कुंवर व्यापक सिंह ...
इसमें "कुंवर" शब्द एक सम्माननीय उपाधि को दर्शाता है, जो की किसी राजघराने से सम्बन्ध रखता हो,
उसके बाद "व्यापक" शब्द सनातन संस्कृति के शब्दकोश का एक ऐसा शब्द है जो जब तक चलन में रहेगा तब तक सनातन संस्कृति जीवित रहेगी l
उसके बाद "सिंह" शब्द आता है .... जो की एक वर्ण व्यवस्था या एक वंशावली का सूचक है l
कुंवर..... पर TAX 10000 रुपये
व्यापक ...पर TAX 1000 रुपये
सिंह ...... पर TAX 1000 रुपये
अब जो TAX चुकाने में सक्षम लोग थे वो अपने अपने बजट के अनुसार अपने बाचों के लिए शुभ नाम निकाल लेते थे l
समस्या वहां उत्पन्न हुई जिनके पास पैसे न हों....
अब आप सोचेंगे की ऐसे बच्चों का कोई नाम नहीं होता होगा .... ?
परन्तु ऐसा नही था ... ऐसे गरीब परिवारों के बच्चों के लिए भी नाम रखे जाने का प्रावधान था l
परन्तु ऐसे नाम उस इलाके के मौलवी या इमाम द्वारा मुफ्त में दिया जाता था और यह कडा नियम था की जो नाम इमाम या मौलवी देंगे वही रखा जायेगा .. अन्यथा दंड का प्रावधान भी होता था l
अब ज़रा सोचिये की किस प्रकार के नाम दिए जाते होंगे इलाके के मौलवी या इमाम द्वारा...
लल्लू राम,
झंडू राम,
कूड़े सिंह,
घासी राम,
घसीटा राम,
फांसी राम,
फुग्ग्न सिंह,
राम कटोरी,
लल्लू सिंह,
फुद्दू राम,
रोंदू सिंह,
रोंदू राम,
रोंदू मल,
खचेडू राम,
खचेडू मल,
लंगडा सिंह,
इस प्रकार के नाम इलाके के मौलवी और इमामो द्वारा मुफ्त में दिए जाते थे l
क्या आप ऐसे नाम अपने बच्चों के रख सकते हैं ... कभी ?? शायद नहीं ?
विवाह संस्कार के लिए इलाके के मौलवी से स्वीकृति लेनी पडती थी, बरात निकालने, ढोल नगाड़े बजाने पर भी TAX होता था, और बरात किस किस मार्ग से जाएगी यह भी मौलवी या इमाम ही तय करते थे l
और इस्लामिक केन्द्रों के सामने ढोल नगाड़े नहीं बजाये जायेंगे, वहां पर से सर झुका कर जाना पड़ेगा l
वर्तमान समय में असम और पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में तो यह आम बात है l
अंतिम संस्कार पर तो भारी TAX लगाया जाता था, जिसके कारण यह तक कहा जाता था कि यदि TAX देने का पैसा नहीं है तो इस्लाम स्वीकार करो और कब्रिस्तान में दफना दो l
वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, आजमगढ़, आदि क्षेत्रों में यह आम बात है l
केरल, बंगाल, असम के मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों में खुल्लम खुल्ला यह फरमान सुनाया जाता है, जहां पर प्रशासन और पुलिस द्वारा कोई सहायता नहीं उपलब्ध करवाई जाती l
इस्लामिक शासन काल में सनातन गुरुकुल शिक्षा पद्धति को भी धीरे धीरे नष्ट किया जाने लगा, औरंगजेब के शासनकाल में तो यह खुल्लम खुल्ला फरमान सुनाया गया था कि ...
किस प्रकार हिन्दुओं को मुसलमान बनाना है ?
किस किस प्रकार की यातनाएं देनी हैं ? किस प्रकार औरतों का शारीरिक मान मर्दन करना है ?
किस प्रकार मन्दिरों को ध्वस्त करना है ?
किस प्रकार मूर्तियों का विध्वंस करना है ?
मूर्तियों को तोड़ कर उन पर मल मूत्र का त्याग करके उनको मन्दिर के नीचे ही दबा देना, खासकर मंदिरों की सीढियों के नीचे, और फिर उसी के ऊपर मस्जिद का निर्माण कर दिया जाए l
मन्दिरों के पुजारियों को कटक कर दिया जाए, यदि वे इस्लाम कबूल करें तो छोड़ दिया जाए l
जितने भी गुरुकुल हैं उनको ध्वस्त कर दिया जाए और आचार्यों को तत्काल प्रभाव से मौत के घाट उतार दिया जाए l
गौशालाओं को अपने नियन्त्रण में ले लिया जाए l
कई मन्दिरों को ध्वस्त करते हुए तो वहां पर गाय काटी जाती थी l
वर्तमान समय में औरंगजेब के खुद के हाथों से लिखे ऐसे हस्तलेख हैं ..जिन पर उसके दस्तखत भी हैं l
ऐसे अत्याचारों और दमन के कारण उपनयन जैसा अति महत्वपूर्ण संस्कार भी विलुप्ति कि कगार पर पहुँचने लगा l
धीरे धीरे संस्कारों का यह सिलसिला ख़त्म सा होता चला गया, वानप्रस्थ और सन्यास संस्कारों को तो लोग भूल ही गए क्योंकि उनका अर्थ ही नहीं ज्ञात हो पाया आने वाली कई पीढ़ियों को l
छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा एक बार पंजाब क्षेत्र में Survey करवाया गया था जिसके अनुसार पंजाब के कई क्षेत्र ऐसे थे जहां पर लोग गायत्री महामंत्र भी भूल चुके थे, उन्हें उसका उच्चारण तो क्या इसके बारे में पता ही नहीं था l
धीरे धीरे पंजाब और अन्य क्षेत्रों में छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा उध्वस्त मन्दिरों का निर्माण करवाया गया और कई जगहों पर आचार्यों को भेजा गया जिन्होंने धर्म प्रचार एवं प्रसार के कार्य किये l
एक महत्वपूर्ण बात सामने आती है ....
कृपया ध्यान से पढ़ें और समझें एक अनोखी कहानी जो भुला दी गयी SICKULAR भारतीय इतिहासकारों द्वारा और नेहरु की kangres द्वारा
औरंगजेब की मृत्यु के 10 वर्ष के अंदर अंदर ही मुगलिया सल्तनत मिटटी में मिल चुकी थी, रंगीले शाह अपनी रंगीलियों के लिए प्रसिद्ध था और दिन प्रतिदिन मुगलिया सल्तनत कर्जों में डूब रही थी l
रंगीले शाह को कर्ज देने में सबसे आगे जयपुर के महाराजा था l
एक बार मौका पाकर जयपुर के महाराजा ने अपना कर्जा मांग लिया l
रंगीले शाह ने बुरे समय पर जयपुर के महाराजा से सम्बन्ध खराब करना उचित न समझा, क्योंकि आगे के लिए कर्ज मिलना बंद हो सकता था जयपुर के महाराज से.. परन्तु रंगीले शाह ने जयपुर के महाराजा की रियासतों को बढ़ा कर बहुत ही ज्यादा विस्तृत कर दिया और कहा की जो नए क्षेत्र आपको दिए गए हैं आप वहां से अपना कर वसूलें जिससे की कर्ज उतर जाए l
जयपुर के महाराज के प्रभाव क्षेत्र में अब गंगा किनारे ब्रिजघाट, आगरा, बिजनौर, सहारनपुर, पानीपत, सोनीपत आदि बहुत से क्षेत्र भी सम्मिलित हो गए l
इन क्षेत्रों में संस्कारों के ऊपर लगने वाले TAX .. जजिया और महसूल आदि धार्मिक TAXES के कारण जनता त्राहि त्राहि कर रही थी, और जयपुर के महाराजा के प्रभाव क्षेत्र में आने के कारण सनातन धर्मी अपनी आशाएं लगा कर बैठे थे की अब यह पैशाचिक TAXES का सिलसिला बंद होगा l
परन्तु जयपुर के महाराजा ने TAXES वापिस नहीं लिए l
मराठा साम्राज्य के पेशवा के राजदूत दीना नाथ शर्मा उन दिनों जयपुर में नियुक्त थे, उन्होंने भरतपुर के जाट नेता बदनसिंह की मदद की और जाटों की अपनी ही एक सेना बनवा डाली, जिनको पेशवा द्वारा मान्यता भी दिलवा दी गयी और 5000 की मनसबदारी भी दिलवा दी गयी l
धीरे धीरे बदनसिंह ने अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाया और दीना नाथ शर्मा के कहने पर समस्त जगहों से मुस्लिम TAXES से पाबंदी हटवाने लगे l
जयपुर के महाराजा निसहाय हो गए क्योंकि पेशवा से सीधे टकराव उनके लिए सम्भव नहीं था l
इन्हीं दिनों ब्रिजघाट तक का क्षेत्र जाटों द्वारा मुक्त करवा लिया गया ..जिसका नाम रखा गया गढ़मुक्तेश्वर
बदन सिंह और राजा सूरजमल ने बहुत से क्षेत्रों पर अपना प्रभाव स्थापित किया और मुस्लिम अत्याचारों से मुक्ति दिलवाने का कार्य किया l
फिर भी ऐसी समस्याएं यदा कडा सामने आ ही जाती थीं, की कई कई जगहों पर मुस्लिम लोग हिन्दुओं को घेरकर उनसे TAX लेते थे या फिर संस्कारों के कार्यों में विघ्न पैदा करते थे l
इस समस्या से निपटने के लिए आगे चल कर बदनसिंह के बाद राजा सूरजमल ने गंगा-महायज्ञ का आयोजन किया, जिसमे गंगोत्री से 11000 कलश मंगवाए गए गंगा जल के और उन्हें भरतपुर के पास ही सुजान गंगा के नाम से स्थापित करवाया और सभी देवी देवताओं को स्थापित करवाया गया और बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया गया l
सुजान गंगा पर आने वाले कई वर्षों तक संस्कारों के कार्य होते रहे l
1947 के बाद नेहरु और SICKULAR जमात ने मिल कर सुजान गंगा का अस्तित्व समाप्त कर दिया, उसमे आसपास के सारे गंदे नाले मिलवा दिए और आसपास की फेक्टरियों का गंदा पानी आदि उसमे गिरवा दिया l
आसपास के लोग मल-मूत्र त्याग करने लगे l
इसी वर्ष हुए एक सर्वे के अनुसार सुजान गंगा के चारों और 650 से ज्यादा लोगों द्वारा प्रतिदिन मल-मूत्र त्याग किया जाता है l
आप सबसे विनम्र अनुरोश है की अपने इतिहास को जानें, जो की आवश्यक है की अपने पूर्वजों के इतिहास जो जानें और समझने का प्रयास करें.... उनके द्वारा स्थापित किये गए सिद्धांतों को जीवित रखें l
जिस सनातन संस्कृति को जीवित रखने के लिए और अखंड भारत की सीमाओं की सीमाओं की रक्षा हेतु हमारे असंख्य पूर्वजों ने अपने शौर्य और पराक्रम से अनेकों बार अपने प्राणों तक की आहुति दी गयी हो, उसे हम किस प्रकार आसानी से भुलाते जा रहे हैं l
सीमाएं उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगी ..... जो सदैव संघर्षरत रहेंगे l
जो लड़ना ही भूल जाएँ वो न स्वयं सुरक्षित रहेंगे न ही अपने राष्ट्र को सुरक्षित बना पाएंगे l
महाराजा सुहेलदेव के पराक्रम की कथा
महमूद गजनवी के उत्तरी भारत को १७ बार लूटने व बर्बाद करने के कुछ समय बाद उसका भांजा सलार गाजी भारत को दारूल इस्लाम बनाने के उद्देश्य से भारत पर चढ़ आया । वह पंजाब ,सिंध, आज के उत्तर प्रदेश को रोंद्ता हुआ बहराइच तक जा पंहुचा। रास्ते में उसने लाखों हिन्दुओं का कत्लेआम कराया,लाखों हिंदू औरतों के बलात्कार हुए, हजारों मन्दिर तोड़ डाले। राह में उसे एक भी ऐसाहिन्दू वीर नही मिला जो उसका मान मर्दन कर सके। इस्लाम की जेहाद की आंधी को रोक सके। बहराइच अयोध्या के पास है के राजा सुहेल देव पासी अपनी सेना के साथ सलार गाजी के हत्याकांड को रोकने के लिए जा पहुंचे । महाराजा व हिन्दू वीरों ने सलार गाजी व उसकी दानवी सेना को मूली गाजर की तरह काट डाला । सलार गाजी मारा गया। उसकी भागती सेना के एक एक हत्यारे को काट डाला गया। हिंदू ह्रदय राजा सुहेल देव पासी ने अपने धर्म का पालन करते हुए, सलार गाजी को इस्लाम के अनुसार कब्र में दफ़न करा दिया। कुछ समय पश्चात् तुगलक वंश के आने पर फीरोज तुगलक ने सलारगाजी को इस्लाम का सच्चा संत सिपाही घोषित करते हुए उसकी मजार बनवा दी।आज उसी हिन्दुओं के हत्यारे, हिंदू औरतों के बलातकारी ,मूर्ती भंजन दानव को हिंदू समाज एक देवता की तरह पूजता है। आज वहा बहराइच में उसकी मजार पर हर साल उर्स लगता हँ और उस हिन्दुओ के हत्यारे की मजार पर सबसे ज्यादा हिन्दू ही जाते हँ
क्या कहा जाए ऐसे हिन्दुओ को............?
सलार गाजी हिन्दुओं का गाजी बाबा हो गया है। हिंदू वीर शिरोमणि सुहेल देव पासी सिर्फ़ पासी समाज का हीरो बनकर रह गएँ है। और सलार गाजी हिन्दुओं का भगवन बनकर हिन्दू समाज का पूजनीय हो गया है।
महाराजा सुहेलदेव के पराक्रम की कथा कुछ इस प्रकार से है -
1001 ई0 से लेकर 1025 ई0 तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा, थानेसर, कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भान्जे सैयद सालार मसूद गाजी ने भी भाग लिया था। 1030 ई. में महमूद गजनबी की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इस्लाम का विस्तार करने की जिम्मेदारी मसूद ने अपने कंधो पर ली लेकिन 10 जून, 1034 ई0 को बहराइच की लड़ाई में वहां के शासक महाराजा सुहेलदेव के हाथों वह डेढ़ लाख जेहादी सेना के साथ मारा गया। इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद भारतीय शूरवीरों का ऐसा आतंक विश्व में व्याप्त हो गया कि उसके बाद आने वाले 150 वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ।
ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी जिसका प्रारंभिक नाम भरवाइच था। इसी कारण इन्हे बहराइच नरेश के नाम से भी संबोधित किया जाता था। इन्हीं महाराजा प्रसेनजित को माघ मांह की बसंत पंचमी के दिन 990 ई. को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम सुहेलदेव रखा गया। अवध गजेटीयर के अनुसार इनका शासन काल 1027 ई. से 1077 तक स्वीकार किया गया है। वे जाति के पासी थे, राजभर अथवा जैन, इस पर सभी एकमत नही हैं।
महाराजा सुहेलदेव का साम्राज्य पूर्व में गोरखपुर तथा पश्चिम में सीतापुर तक फैला हुआ था। गोंडा बहराइच, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव व लखीमपुर इस राज्य की सीमा के अंतर्गत समाहित थे। इन सभी जिलों में राजा सुहेल देव के सहयोगी पासी राजा राज्य करते थे जिनकी संख्या 21 थी। ये थे -1. रायसायब 2. रायरायब 3. अर्जुन 4. भग्गन 5. गंग 6. मकरन 7. शंकर 8. करन 9. बीरबल 10. जयपाल 11. श्रीपाल 12. हरपाल 13. हरकरन 14. हरखू 15. नरहर 16. भल्लर 17. जुधारी 18. नारायण 19. भल्ला 20. नरसिंह तथा 21. कल्याण ये सभी वीर राजा महाराजा सुहेल देव के आदेश पर धर्म एवं राष्ट्ररक्षा हेतु सदैव आत्मबलिदान देने के लिए तत्पर रहते थे। इनके अतिरिक्त राजा सुहेल देव के दो भाई बहरदेव व मल्लदेव भी थे जो अपने भाई के ही समान वीर थे। तथा पिता की भांति उनका सम्मान करते थे।
महमूद गजनवी की मृत्य के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा। उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। एक माह तक चले इस युद्व ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर रख दिया वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार साहू, सालार सैफुद्दीन, अमीर सैयद एजाजुद्वीन, मलिक दौलत मिया, रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह आदि एक बड़ी धुड़सवार सेना के साथ मसूद की सहायता को आ गए। पुनः भयंकर युद्व प्रारंभ हो गया जिसमें दोनों ही पक्षों के अनेक योद्धा हताहत हुए। इस लड़ाई के दौरान राय महीपाल व राय हरगोपाल ने अपने धोड़े दौड़ाकर मसूद पर गदे से प्रहार किया जिससे उसकी आंख पर गंभीर चोट आई तथा उसके दो दाँत टूट गए। हालांकि ये दोनों ही वीर इस युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो गए लेकिन उनकी वीरता व असीम साहस अद्वितीय थी। मेरठ का राजा हरिदत्त मुसलमान हो गया तथा उसने मसूद से संधि कर ली यही स्थिति बुलंदशहर व बदायूं के शासकों की भी हुई। कन्नौज का शासक भी मसूद का साथी बन गया। अतः सालार मसूद ने कन्नौज को अपना केंद्र बनाकर हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएं भेजना प्रारंभ किया। इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं सालार मसूद सप्तॠषि (सतरिख) की ओर बढ़ा। मिरआते मसूदी के विवरण के अनुसार सतरिख (बाराबंकी) हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल था। एक किवदंती के अनुसार इस स्थान पर भगवान राम व लक्ष्मण ने शिक्षा प्राप्त की थी। यह सात ॠषियों का स्थान था, इसीलिए इस स्थान का सप्तऋर्षि पड़ा था, जो धीरे-धीरे सतरिख हो गया। सालार मसूद विलग्राम, मल्लावा, हरदोई, संडीला, मलिहाबाद, अमेठी व लखनऊ होते हुए सतरिख पहुंचा। उसने अपने गुरू सैयद इब्राहीम बारा हजारी को धुंधगढ़ भेजा क्योंकि धुंधगढ क़े किले में उसके मित्र दोस्त मोहम्मद सरदार को राजा रायदीन दयाल व अजय पाल ने घेर रखा था। इब्राहिम बाराहजारी जिधर से गुजरते गैर मुसलमानों का बचना मुस्किल था। बचता वही था जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था।
आइन - ए - मसूदी के अनुसार – निशान सतरिख से लहराता हुआ बाराहजारी का। चला है धुंधगढ़ को काकिला बाराहजारी का मिला जो राह में मुनकिर उसे दे उसे दोजख में पहुचाया। बचा वह जिसने कलमा पढ़ लिया बारा हजारी का। इस लड़ाई में राजा दीनदयाल व तेजसिंह बड़ी ही बीरता से लड़े लेकिन वीरगति को प्राप्त हुए। परंतु दीनदयाल के भाई राय करनपाल के हाथों इब्राहीम बाराहजारी मारा गया। कडे क़े राजा देव नारायन और मानिकपुर के राजा भोजपात्र ने एक नाई को सैयद सालार मसूद के पास भेजा कि वह विष से बुझी नहन्नी से उसके नाखून काटे, ताकि सैयद सालार मसूद की इहलीला समाप्त हो जायें लेकिन इलाज से वह बच गया। इस सदमें से उसकी माँ खुतुर मुअल्ला चल बसी। इस प्रयास के असफल होने के बाद कडे मानिकपुर के राजाओं ने बहराइच के राजाओं को संदेश भेजा कि हम अपनी ओर से इस्लामी सेना पर आक्रमण करें और तुम अपनी ओर से।
इस प्रकार हम इस्लामी सेना का सफाया कर देगें। परंतु संदेशवाहक सैयद सालार के गुप्तचरों द्वारा बंदी बना लिए गए। इन संदेशवाहकों में दो ब्राह्मण और एक नाई थे। ब्राह्मणों को तो छोड़ दिया गया लेकिन नाई को फांसी दे दी गई इस भेद के खुल जाने पर मसूद के पिता सालार साहु ने एक बडी सेना के साथ कड़े मानिकपुर पर धावा बोल दिया। दोनों राजा देवनारायण व भोजपत्र बडी वीरता से लड़ें लेकिन परास्त हुए। इन राजाओं को बंदी बनाकर सतरिख भेज दिया गया। वहॉ से सैयद सालार मसूद के आदेश पर इन राजाओं को सालार सैफुद्दीन के पास बहराइच भेज दिया गया। जब बहराइज के राजाओं को इस बात का पता चला तो उन लोगो ने सैफुद्दीन को धेर लिया। इस पर सालार मसूद उसकी सहायता हेतु बहराइच की ओर आगें बढे। इसी बीच अनके पिता सालार साहू का निधन हो गया।
बहराइच के पासी राजा भगवान सूर्य के उपासक थे। बहराइच में सूर्यकुंड पर स्थित भगवान सूर्य के मूर्ति की वे पूजा करते थे। उस स्थान पर प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास मे प्रथम रविवार को, जो बृहस्पतिवार के बाद पड़ता था एक बड़ा मेला लगता था यह मेला सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा प्रत्येक रविवार को भी लगता था। वहां यह परंपरा काफी प्राचीन थी। बालार्क ऋषि व भगवान सूर्य के प्रताप से इस कुंड मे स्नान करने वाले कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाया करते थे। बहराइच को पहले ब्रह्माइच के नाम से जाना जाता था। सालार मसूद के बहराइच आने के समाचार पाते ही बहराइच के राजा गण – राजा रायब, राजा सायब, अर्जुन भीखन गंग, शंकर, करन, बीरबर, जयपाल, श्रीपाल, हरपाल, हरख्, जोधारी व नरसिंह महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में लामबंद हो गये। ये राजा गण बहराइच शहर के उत्तर की ओर लगभग आठ मील की दूरी पर भकला नदी के किनारे अपनी सेना सहित उपस्थित हुए। अभी ये युद्व की तैयारी कर ही रहे थे कि सालार मसूद ने उन पर रात्रि आक्रमण (शबखून) कर दिया। मगरिब की नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती हुई हिंदु सेना पर आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई मे सालार मसूद बिजयी रहा। पहली लड़ार्ऌ मे परास्त होने के पश्चात पुनः अगली लडार्ऌ हेतु हिंदू सेना संगठित होने लगी उन्होने रात्रि आक्रमण की संभावना पर ध्यान नही दिया। उन्होने राजा सुहेलदेव के परामर्श पर आक्रमण के मार्ग में हजारो विषबुझी कीले अवश्य धरती में छिपा कर गाड़ दी। ऐसा रातों रात किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जब मसूद की धुडसवार सेना ने पुनः रात्रि आक्रमण किया तो वे इनकी चपेट मे आ गए। हालाकि हिंदू सेना इस युद्व मे भी परास्त हो गई लेकिन इस्लामी सेना के एक तिहायी सैनिक इस युक्ति प्रधान युद्ध मे मारे गए।
भारतीय इतिहास मे इस प्रकार युक्तिपूर्वक लड़ी गई यह एक अनूठी लड़ाई थी। दो बार धोखे का शिकार होने के बाद हिंदू सेना सचेत हो गई तथा महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में निर्णायक लड़ार्ऌ हेतु तैयार हो गई। कहते है इस युद्ध में प्रत्येक हिंदू परिवार से युवा हिंदू इस लड़ार्ऌ मे सम्मिलित हुए। महाराजा सुहेलदेव के शामिल होने से हिंदूओं का मनोबल बढ़ा हुआ था। लड़ाई का क्षेत्र चिंतौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था।
जून, 1034 ई. को हुई इस लड़ाई में सालार मसूद ने दाहिने पार्श्व (मैमना) की कमान मीरनसरूल्ला को तथा बाये पार्श्व (मैसरा) की कमान सालार रज्जब को सौपा तथा स्वयं केंद्र (कल्ब) की कमान संभाली तथा भारतीय सेना पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इससे पहले इस्लामी सेना के सामने हजारो गायों व बैलो को छोड़ा गया ताकि हिंदू सेना प्रभावी आक्रमण न कर सके लेकिन महाराजा सुहेलदेव की सेना पर इसका कोई भी प्रभाव न पड़ा। वे भूखे सिंहों की भाति इस्लामी सेना पर टूट पडे मीर नसरूल्लाह बहराइच के उत्तर बारह मील की दूरी पर स्थित ग्राम दिकोली के पास मारे गए। सैयर सालार समूद के भांजे सालार मिया रज्जब बहराइच के पूर्व तीन कि. मी. की दूरी पर स्थित ग्राम शाहपुर जोत यूसुफ के पास मार दिये गए। इनकी मृत्य 8 जून, 1034 ई 0 को हुई। अब भारतीय सेना ने राजा करण के नेतृत्व में इस्लामी सेना के केंद्र पर आक्रमण किया जिसका नेतृत्व सालार मसूद स्वंय कर कहा था। उसने सालार मसूद को धेर लिया। इस पर सालार सैफुद्दीन अपनी सेना के साथ उनकी सहायता को आगे बढे भयकर युद्व हुआ जिसमें हजारों लोग मारे गए। स्वयं सालार सैफुद्दीन भी मारा गया उसकी समाधि बहराइच-नानपारा रेलवे लाइन के उत्तर बहराइच शहर के पास ही है। शाम हो जाने के कारण युद्व बंद हो गया और सेनाएं अपने शिविरों में लौट गई।
10 जून, 1034 को महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया। इस युद्ध में सालार मसूद अपनी धोड़ी पर सवार होकर बड़ी वीरता के साथ लड़ा लेकिन अधिक देर तक ठहर न सका। राजा सुहेलदेव ने शीध्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा जिससे उसका प्राणांत हो गया। इसके दूसरे हीं दिन शिविर की देखभाल करने वाला सालार इब्राहीम भी बचे हुए सैनिको के साथ मारा गया। सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजा सुहेल देव ने विजय पर्व मनाया और इस महान विजय के उपलक्ष्य में कई पोखरे भी खुदवाए। वे विशाल ”विजय स्तंभ” का भी निर्माण कराना चाहते थे लेकिन वे इसे पूरा न कर सके। संभवतः यह वही स्थान है जिसे एक टीले के रूप मे श्रावस्ती से कुछ दूरी पर इकोना-बलरामपुर राजमार्ग पर देखा जा सकता है।




औरंगजेब की मृत्यु ..... वीर छत्रसाल का शौर्य
औरंगजेब की मृत्यु .....
14वीं और 15वीं शताब्दी में गद्दारों के कारण कई युद्धों में हार के बाद हिन्दू महासभा द्वारा संतों की अगुवाई में यह निर्णय लिया गया की अब प्रमुख साधू संतों द्वारा व्यक्ति निर्माण का कार्य अपने हाथों में लिए जाए l
इस पुनीत कार्य हेतु बहुत से संतों ने अपना अपना राष्ट्रीय एवं धार्मिक कर्तव्य निभाते हुए समय समय पर शूरवीरों का निर्माण किया l
समर्थ गुरु रामदास जी भी इसी श्रेणी में आते हैं जिन्होंने शिवाजी का निर्माण किया l
प्राण नाथ महाप्रभु जी ने बुन्देलखण्ड से छत्रसाल का निर्माण किया l
ओहम नरेश को श्री राम महाप्रभु द्वारा तैयार किया गया l
शिवाजी का स्वर्गवास हो चूका था l
सम्भाजी के अंग अंग काट कर उसकी नृशंस हत्या औरंगजेब के सामने ही कर दी गई थी l
उसके बाद छापामार युद्ध प्रणाली से ही समस्त भारत में चारों और से औरंगजेब के विरुद्ध एक सामूहिक प्रयास हिन्दू महासभा द्वारा आरम्भ किया गया जिसमे की बहुत से धर्म-गुरुओं और साधू संतों द्वारा समय समय पर नीतियाँ और परामर्श भी दिए जाते रहे l
यह भी एक इतिहास ही है की औरंगजेब की सेना इतिहास में सबसे बड़ी सेना मानी जाती है, धन से भी और व्यक्तियों से भी l
छोटे छोटे प्रयास हमेशा ही किये जाते थे औरंगजेब को मारने के परन्तु वो किस्मत का भी धनी था... और भारत के गद्दारों निष्ठा का भी l
मराठा नेता संताजी और धनाजी द्वारा एक बार औरंगजेब के तम्बू की सारी रस्सियाँ ही काट
कर तम्बू ही गिरा दिया गया था, परन्तु औरंगजेब उस रात अपनी बेटी के तम्बू में था जिस कारण वो तो बच गया पर बाकी सभी मर गए l
इस अचानक हमले के बाद संता जी और धनाजी की ख्याति भी बहुत बढ़ गयी थी, हालत यह हो गयी थी की यदि कोई घोड़ा पानी नहीं पीता था तो उसे मुसलमान कहते थे की .. तूने क्या संता जी और धना जी को देख लिया है .... ??
बुन्देलखण्ड के वीर छत्रसाल ने सौगंध की हुई थी की औरंगजेब को व्यक्तिगत युद्ध में अपनी तलवार से हराएगा ..... छत्रसाल द्वारा ऐसे कई प्रयास भी किये गए परन्तु अथक प्रयासों के बावजूद वीर छत्रसाल सफल न हो पाए l
अंतत: प्राण नाथ महाप्रभु जी ने कहा की एक एक दिन भारी पड़ रहा है हिन्दुओं पर, क्योंकि औरंगजेब रोज ढाई मन जनेऊ न जला लेता था तब तक उसे नींद नहीं आती थी l
आप इसी बात से अंदाजा लगा सकते हैं की ढाई मन जनेऊ एक दिन में जलाने से कितने हिन्दुओं को मारा सताया जाता होगा और कितने बड़े स्तर पर धर्म परिवर्तन किया जाता होगा, कितनी ही औरतों का शारीरिक मान मर्दन किया जाता होगा और कितने ही मन्दिरों तथा प्रतिमाओं का विध्वंस किया जाता होगा l
प्राण नाथ महाप्रभु जी की यह बातें सुन कर छत्रसाल जी ने अपनी सौगंध वापिस लेकर कहा की आप जो कहेंगे मैं वो करूँगा आप दुखी न हों...आदेश दें l
प्राणनाथ महाप्रभु जी ने एक ख़ास प्रकार के जहर से युक्त एक खंजर दिया बुन्देलखण्ड को और सारी योजना समझाते हुए कहा की यह खंजर पूरा नहीं मारना है, नहीं तो वो तत्काल प्रभाव से मर जायेगा ..... अतः ये खंजर केवल उसको एक इंच से भी कम गहराई का घाव देते हुए लम्बा सा एक चीर ही मारना था l
जिससे की धीरे धीरे उस जहर का असर फैलेगा और औरंगजेब तडप तडप कर मरेगा l
बुन्देला वीर छत्रसाल ने इस कार्य को सफलता पूर्वक अंजाम दिया और जैसा प्राण नाथ महाप्रभु जी ने कहा था उसी प्रकार उसके शरीर पर एक चीर दिया.... औरंगजेब 3 महीने तक तडप तडप कर मरा और एक दिन उसके पापों का का अंत हुआ l
औरंगशाही में औरंगजेब ने स्वयम लिखा है की मुझे प्राण नाथ महाप्रभु ने और छत्रसाल ने धोखे और छल से मारा है l
आप सबसे विनम्र अनुरोश है की अपने इतिहास को जानें, जो की आवश्यक है की अपने पूर्वजों के इतिहास जो जानें और समझने का प्रयास करें.... उनके द्वारा स्थापित किये गए सिद्धांतों को जीवित रखें l
जिस सनातन संस्कृति को जीवित रखने के लिए और अखंड भारत की सीमाओं की सीमाओं की रक्षा हेतु हमारे असंख्य पूर्वजों ने अपने शौर्य और पराक्रम से अनेकों बार अपने प्राणों तक की आहुति दी गयी हो, उसे हम किस प्रकार आसानी से भुलाते जा रहे हैं l
सीमाएं उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगी ..... जो सदैव संघर्षरत रहेंगे l
जो लड़ना ही भूल जाएँ वो न स्वयं सुरक्षित रहेंगे न ही अपने राष्ट्र को सुरक्षित बना पाएंगे l

Thursday, May 29, 2014



टीपू सुल्तान (१७८६-१७९९)
तथाकथित अकबर महान के पश्चात हमारे मार्किसस्ट इतिहासज्ञों की दुष्टि में सैक्यूलरवाद, प्रजातंत्र, उपनिवेशवाद विरोधी व सहिष्णुता का निष्कर्ष निकालने के लिए टीपू सुल्तान एक जीता जागता, सशरीर सुविधाजनक उदाहरण या नमूना हैं किन्तु सामयिक प्रलेखों (सुरा ९ आयत ७३) से पूर्णतः स्पष्ट है कि धार्मिक आदेशों से प्रोत्साहित कुर्ग और मलाबार के हिन्दुओं पर टीपू के अत्याचार और यातानाएं उन क्षेत्रों के इतिहास में अनुपम एवम्‌ अद्वितीय ही थे।
उपर्लिखित इतिहासज्ञों (मार्किसस्टों) की, नस्ल ने, टीपू को, उसके द्वारा किये गये बर्बर अतयाचारों को पूर्णतः दबा, छिपा कर, आतताई को सैक्यूलरवादी, राष्ट्रवादी, देवतातुल्य, प्रमाणित व प्रस्तुत करने में कोई भी, कैसी भी, कमी नहीं रखी है, ताकि हम, मूर्ति पूजकों की पृथक-पृथक मूर्ख जाति, जो छद्‌म देवताओं की भी पूजा कर लेते हैं,उसे वैसा ही मान लें। और सत्य तो यह है कि बहुतांश में ये इतिहासकार अपने इस कुटिल उद्‌देश्य में, भले को पूरी तरह नहीं, सफल भी हो गये हैं, किन्तु महा महिम टीपू सुल्तान बड़े, कृपालु और उदार थे कि उन्होंने अपने द्वारा हिन्दुओं पर किय गये अत्याचारों का वर्णन, और अन्य सामयिक प्रलेखों में दक्षिण भारत के इस मुजाहिद का वास्तविक स्वरूप, पूर्णतः प्रकाशित हो जाता है।
टीपू के पत्र
टीपू द्वारा लिखित कुछ पत्रों, संदेशों, और सूचनाओं, के कुछ अंश निम्नांकित हैं। विखयात इतिहासज्ञ, सरदार पाणिक्कर, ने लन्दन के इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी से इन सन्देशों, सूचनाओं व पत्रों के मूलों को खोजा था।
(i) अब्दुल खादर को लिखित पत्र २२ मार्च १७८८
“बारह हजार से अधिक, हिन्दुओं को इ्रस्लाम से सम्मानित किया गया (धर्मान्तरित किया गया)। इनमें अनेकों नम्बूदिरी थे। इस उपलब्धि का हिन्दुओं के मध्य व्यापक प्रचार किया जाए। स्थानीय हिन्दुओं को आपके पास लाया जाए, और उन्हें इस्लाम में धर्मान्तरित किया जाए। किसी भी नम्बूदिरी को छोड़ा न जाए।”
(भाषा पोशनी-मलयालम जर्नल, अगस्त १९२३)
(ii) कालीकट के अपने सेना नायकको लिखित पत्र दिनांक १४ दिसम्बर १७८८
”मैं तुम्हारे पास मीर हुसैन अली के साथ अपने दो अनुयायी भेज रहा हूँ। उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लेना और वध कर देना…”। मेरे आदेश हैं कि बीस वर्ष से कम उम्र वालों को काराग्रह में रख लेना और शेष में से पाँच हजार का पेड़ पर लटकाकार वध कर देना।”
(उसी पुस्तक में)
(iii) बदरुज़ समाँ खान को लिखित पत्र (दिनांक १९ जनवरी १७९०)
”क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है निकट समय में मैंने मलाबार में एक बड़ी विजय प्राप्त की है चार लाख से अधिक हिन्दुओं को मूसलमान बना लिया गया था। मेरा अब अति शीघ्र ही उस पानी रमन नायर की ओर अग्रसर होने का निश्चय हैं यह विचार कर कि कालान्तर में वह और उसकी प्रजा इस्लाम में धर्मान्तरित कर लिए जाएँगे, मैंने श्री रंगापटनम वापस जाने का विचार त्याग दिया है।”
(उसी पुस्तक में)
टीपू ने हिन्दुओं के प्रति यातनाआं के लिए मलाबार के विभिन्न क्षेत्रों के अपने सेना नायकों को अनेकों पत्र लिखे थे।
”जिले के प्रत्येक हिन्दू का इस्लाम में आदर (धर्मान्तरण) किया जाना चाहिए; उन्हें उनके छिपने के स्थान में खोजा जाना चाहिए; उनके इस्लाममें सर्वव्यापी धर्मान्तरण के लिए सभी मार्ग व युक्तियाँ- सत्य और असत्य, कपट और बल-सभी का प्रयोग किया जाना चाहिए।”
(हिस्टौरीकल स्कैचैज ऑफ दी साउथ ऑफ इण्डिया इन एन अटेम्पट टूट्रेस दी हिस्ट्री ऑफ मैसूर- मार्क विल्क्स, खण्ड २ पृष्ठ १२०)
मैसूर के तृतीय युद्ध (१७९२) के पूर्व से लेकर निरन्तर १७९८ तक अफगानिस्तान के शासक, अहमदशाह अब्दाली के प्रपौत्र, जमनशाह, के साथ टीपू ने पत्र व्यवहार स्थापित कर लिया था। कबीर कौसर द्वारा लिखित, ‘हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान’ (पृ’ १४१-१४७) में इस पत्र व्यवहार का अनुवाद हुआ है। उस पत्र व्यवहार के कुछ अंग्रेजश नीचे दिये गये हैं।
टीपू के ज़मन शाह के लिए पत्र
(i) ”महामहिल आपको सूचित किया गया होगा कि, मेरी महान अभिलाषा का उद्देश्य जिहाद (धर्म युद्ध) है। इस युक्ति का इस भूमि पर परिणाम यह है कि अल्लाह, इस भूमि के मध्य, मुहम्मदीय उपनिवेश के चिह्न की रक्षा करता रहता है, ‘नोआ के आर्क’ की भाँति रक्षा करता है और त्यागे हुए अविश्वासियों की बढ़ी हुई भुजाओं को काटता रहता है।”
(ii) ”टीपू से जमनशाह को, पत्र दिनांक शहबान का सातवाँ १२११ हिजरी (तदनुसार ५ फरवरी १७९७): ”….इन परिस्थितियों में जो, पूर्व से लेकर पश्चित तक, सूर्य के स्वर्ग के केन्द्र में होने के कारण, सभी को ज्ञात हैं। मैं विचार करता हूँ कि अल्लाह और उसके पैगम्बर के आदेशों से एक मत हो हमें अपने धर्म के शत्रुओं के विरुद्ध धर्म युद्ध क्रियान्वित करने के लिए, संगठित हो जाना चाहिए। इस क्षेत्र के पन्थ के अनुयाई, शुक्रवार के दिन एक निश्चित किये हुए स्थान पर सदैव एकत्र होकर इन शब्दों में प्रार्थना करते हैं। ”हे अल्लाह! उन लोगों को, जिन्होंने पन्थ का मार्ग रोक रखा है, कत्ल कर दो। उनके पापों को लिए, उनके निश्चित दण्ड द्वारा, उनके शिरों को दण्ड दो।”
मेरा पूरा विश्वास है कि सर्वशक्तिमान अल्लाह अपने प्रियजनों के हित के लिए उनकी प्रार्थनाएं स्वीकार कर लेगा और पवित्र उद्‌देश्य की गुणवत्ता के कारण हमारे सामूहिक प्रयासों को उस उद्‌देश्य के लिए फलीभूत कर देगा। और इन शब्दों के, ”तेरी (अल्लाह की) सेनायें ही विजयी होगी”, तेरे प्रभाव से हम विजयी और सफल होंगे।
एतिहासिक लेख
टीपू की बहुचर्चित तलवार’ पर फारसी भाषा में निम्नांकित शब्द लिखे थे- ”मेरी चमकती तलवार अविश्वासियों के विनाश के लिए आकाश की कड़कड़ाती बिजली है। तू हमारा मालिक है, हमारीमदद कर उन लोगों के विरुद्ध जो अविश्वासी हैं। हे मालिक ! जो मुहम्मद के मत को विकसित करता है उसे विजयी बना। जो मुहम्मद के मत को नहीं मानता उसकी बुद्धि को भृष्ट कर; और जो ऐसी मनोवृत्ति रखते हैं, हमें उनसे दूर रख। अल्लाह मालिक बड़ी विजय में तेरी मदद करे, हे मुहम्मद!”
(हिस्ट्री ऑफ मैसूर सी.एच. राउ खण्ड ३, पृष्ठ १०७३)
*ब्रिटिश म्यूजियम लण्डल का जर्नल
हमारे सैक्यूलरिस्ट इतिहासज्ञों की रुचि, प्रसन्नता व ज्ञान के लिए श्री रंग पटनम दुर्ग में प्राप्त टीपू का एक शिला लेख पर्याप्त महत्वपूर्ण है। शिलालेख के शब्द इस प्रकार हैं- ”हे सर्वशक्तिमान अल्लाह! गैर-मुसलमानों के समस्त समुदाय को समाप्त कर दे। उनकी सारी जाति को बिखरा दो, उनके पैरों को लड़खड़ा दो अस्थिर कर दो! और उनकी बुद्धियों को फेर दो! मृत्यु को उनके निकट ला दो (उन्हें शीघ्र ही मार दो), उनके पोषण के साधनों को समाप्त कर दो। उनकी जिन्दगी के दिनों को कम कर दो। उनके शरीर सदैव उनकी चिंता के विषय बने रहें, उनके नेत्रों की दृष्टि छी लो, उनके मुँह (चेहरे) काले कर दो, उनकी वाणी को (जीभ को), बोलने के अंग को, नष्ट कर दो! उन्हें शिदौद की भाँति कत्ल करदो जैसे फ़रोहा को डुबोया था, उन्हें भी डुबो दो, और भयंकरतम क्रोध के साथ उनसे मिलो यानी कि उन पर अपार क्रोध करो। हे बदला लेने वाले! हे संसार के मालिक पिता! मैं उदास हूँ! हारा हुआ हूँ,! मुझे अपनी मदद दो।”
(उसी पुस्तक में पृष्ठ १०७४)
टीपू का जीवन चरित्र
टीपू की फारसी में लिखी, ‘सुल्तान-उत-तवारीख’ और ‘तारीख-ई-खुदादादी’ नाम वाली दो जीवनयिाँ हैं। बाद वाली पहली जीवनी का लगभग यथावत (हू बू हू) प्रतिरूप नकल है। ये दोनों ही जीवनियाँ लन्दन की इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी में एम.एस. एस. क्र. ५२१ और २९९ क्रमानुसार रखी हुई हैं। इन दोनों जीवनयिों में हिन्दुओं पर उसके द्वारा ढाये अत्याचारों, और दी गई यातनाओं, का विस्तृत वर्णन टीपू ने किया है। यहाँ तक कि मोहिब्बुल हसन, जिसने अपनी पुस्तक, हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान, टीपू को एक समझदार, उदार, और सैक्यूलर शासक चित्रित व प्रस्तुत करने में कोई कैसी भी कमी नहीं रखी थी, को भी स्वीकार करना पड़ा था कि ”तारीख यानी कि टीपू की जीवनियों के पढ़ने के बाद टीपू का जो चित्र उभरता है वह एक ऐसे धर्मान्ध, पन्थ के लिए मतवाले, या पागल, का है जो मुस्लिमेतर लोगों के वध और उनके इस्लाम में बलात परिवर्तन करान में ही सदैव लिप्त रहा आया।”
(हिस्ट्री ऑफ टीपू सुल्तान, मोहिब्बुल हसन, पृष्ठ ३५७)
प्रत्यक्षदर्शियों के वर्णन
इस्लाम के प्रोत्साहन के लिए टीपू द्वारा व्यवहार में लाये अत्याचारों और यातनाओं के प्रत्यक्ष दर्शियों में से एक पुर्तगाली यात्री और इतिहासकार, फ्रा बारटोलोमाको है। उसने जो कुछ मलाबार में, १७९० में, देखा उसे अपनी पुस्तक, ‘वौयेज टू ईस्ट इण्डीज’ में लिख दिया था- ”कालीकट में अधिकांश आदमियों और औरतों को फाँसी पर लटका दिया जाता था। पहले माताओं को उनके बच्चों को उनकी गर्दनों से बाँधकर लटकाकर फाँसी दी जाती थी। उस बर्बर टीपू द्वारा नंगे (वस्त्रहीन) हिन्दुओं और ईसाई लोगों को हाथियों की टांगों से बँधवा दिया जाता था और हाथियों को तब तक घुमाया जाता था दौड़ाया जाता था जब तक कि उन सर्वथा असहाय निरीह विपत्तिग्रस्त प्राणियों के शरीरों के चिथड़े-चिथड़े नहीं हो जाते थे। मन्दिरों और गिरिजों में आग लगाने, खण्डित करने, और ध्वंस करने के आदेश दिये जाते थे। यातनाओं का उपर्लिखित रूपान्तर टीपू की सेना से बच भागने वालेऔर वाराप्पुझा पहुँच पाने वाले अभागे विपत्तिग्रस्त व्यक्तियों से सुन वृत्तों के आधार पर था… मैंने स्वंय अनेकों ऐसे विपत्ति ग्रस्त व्यक्तियों को वाराप्पुझा नहीं को नाव द्वारा पार कर जोने के लिए सहयोग किया था।”
(वौयेज टू ईस्ट इण्डीजः फ्रा बारटोलोमाको पृष्ठ १४१-१४२)
टीपू द्वारा मन्दिरों का विध्वंस
दी मैसूर गज़टियर बताता है कि ”टीपू ने दक्षिण भारत में आठ सौं से अधिक मन्दिर नष्ट किये थे।”
के.पी. पद्‌मानाभ मैनन द्वारा लिखित, ‘हिस्ट्री ऑफ कोचीन और श्रीधरन मैनन द्वारा लिखित, हिस्ट्री ऑफ केरल’ उन भग्न, नष्ट किये गये, मन्दिरों में से कुछ का वर्णन करते हैं- ”चिन्गम महीना ९५२ मलयालम ऐरा तदुनसार अगस्त १७८६ में टीपू की फौज ने प्रसिद्ध पेरुमनम मन्दिर की मूर्तियों का ध्वंस किया और त्रिचूर ओर करवन्नूर नदी के मध्य के सभी मन्दिरों का ध्वंस कर दिया। इरिनेजालाकुडा और थिरुवांचीकुलम मन्दिरों को भी टीपू की सेना द्वारा खण्डित किया गया और नष्ट किया गया।” ”अन्य प्रसिद्ध मन्दिरों में से कुछ, जिन्हें लूटा गया, और नष्ट किया गया, था, वे थे- त्रिप्रंगोट, थ्रिचैम्बरम्‌, थिरुमवाया, थिरवन्नूर, कालीकट थाली, हेमम्बिका मन्दिरपालघाट का जैन मन्दिर, माम्मियूर, परम्बाताली, पेम्मायान्दु, थिरवनजीकुलम, त्रिचूर का बडक्खुमन्नाथन मन्दिर, बैलूर शिवा मन्दिर आदि।”
”टीपू की व्यक्तिगत डायरी के अनुसार चिराकुल राजा ने टीपू सेना द्वारा स्थानीय मन्दिरों को विनाश से बचाने के लिए, टीपू सुल्तान को चार लाख रुपये का सोना चाँदी देने का प्रस्ताव रखा था। किन्तु टीपू ने उत्तर दिया था, ”यदि सारी दुनिया भी मुझे दे दी जाए तो भी मैं हिन्दू मन्दिरों को ध्वंस करने से नहीं रुकूँगा”
(फ्रीडम स्ट्रगिल इन केरल : सरदार के.एम. पाणिक्कर)
टीपू द्वारा केरल की विजय के प्रलयंकारी भयावह परिणामों का सविस्तार सजीव वर्णन, ‘गजैटियर ऑफ केरल के सम्पादक और विखयात इतिहासकार ए. श्रीधर मैनन द्वारा किया गया है। उसके अनुसार, ”हिन्दू लोग, विशेष कर नायर लोग और सरदार लोग जिन्होंने इस्लामी आक्रमणकारियों का प्रतिरोध किया था, टीपू के क्रोध के प्रमुखा भाजन बन गये थे। सैकड़ों नायर महिलाओं और बच्चों को भगा लिया गया और श्री रंग पटनम ले जाया गया या डचों के हाथ दास के रूप में बेच दिया गया था। हजारों ब्राह्मणों, क्षत्रियों और हिन्दुओं के अन्य सम्माननीय वर्गों के लोगों कोबलात इस्लाम में धर्मान्तरित कर दिया गया था या उनके पैतृक घरों से भगा दिया गया था।”
सुल्तान और भारतीय राष्ट्रवाद
हमारे मार्क्सिस्ट इतिहासकारों द्वारा टीपू सुल्तान जैसे हृदय हीन, अत्याचारी, को वीर पुरुष के रूप में स्वागत किया गया है। किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न है कि टीपू का किस राष्ट्रीयता से सम्बन्ध था और उसके जीवन की प्रेरणा स्रोत-कौन-सी राष्ट्रीयता थी? एक राष्ट्र का जन्म सभ्यता से होता है। राष्ट्रीयता किसी सभ्यता विशेश की मानवीय महत्वाकांक्षा होती है जिसका उदय एक विचार प्रवाह से होता है, जो ऐसी उदीय मानता की प्रतिरुप सांस्कृतिक लक्षण से दिशा पाती है। टीपू का सम्बन्ध उस राष्ट्र से कभी भी नहीं रहा जिसके गृह स्थान का, उसके पन्थ के सह मतावलम्बियों ने, एक हजार वर्ष तक विध्वंस किया, और लूटा, वह हिन्दू भूमि का एक मुस्लिम शासक था। जैसा उसने स्वंय कहा, उसके जीवन का उद्‌देश्य अपने राज्य को दारुल इस्लाम (इस्लामी देश) बनाना था। केवल ब्रिटिशों के विरुद्ध युद्ध करने और उनके द्वारा मारे जाने मात्र से कोई राष्ट्रवादी नहीं बन जाता। टीपू ब्रिटिशों से अपने ताज की सुरक्षा के लिए लड़ा था न कि देश को विदेशी गुलामी से मुक्त कराने केलिए। उसने तो स्वंय ने, भारत पर आक्रमण करने, और राज्य करने के लिए अफगानिस्तान के जहनशाह को आमंत्रित किया था।
(जहनशाह को लिखे पत्रों को पढ़िये)
सैक्यूलरिस्ट जैसा कहना पसन्द करते हैं, इण्डियन नेशनलिज्म अपने प्रादुर्भाव के समय से ही हिन्दू राष्ट्रीयता के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं रही है। हमारे देशवासियों के हृदयों में, अलैक्जैण्डर से लेकर हूण, और बिन कासिम से लेकर ब्रिटिश सभी आक्रमणकारियों के विरुद्ध, अपने न रुकने वाले संघर्ष वा प्रतिरोध के लिए, अभीष्ट प्रेरणा इसी राष्ट्रीयता की भावना से प्राप्त होती रही है। टीपू जैसा एक मुजाहिद, हमारे राष्ट्रीय गर्व और मान्यताओं के लिए, केवल अनपयुक्त एवम्‌ बेमेल ही नही है, घातक भी है। भारत के सैक्यूलरिस्टों की समझ में आ जाना चाहिए कि इन मुस्लिम अत्याचारियों और आतताइयों के, हिन्दुओं पर किये गये अत्याचारों, को दबा छिपाकर, तथा उन्हें सैक्यूलरिज्म का लबादा पहनाने से, कोई कैसा भी लाभ नहीं हो सकेगा। इससे और अधिक मात्रा में गजनबी, गौरी, मुगल, बाबर और टीपू पैदा होंगे जो सैक्यूलरिज्म के जनाजे, कफन, को देश में ढोते रहेंगे।
सामान्य हिन्दुओं को भी समझ लेनाचाहिए कि, अपने देश के इतिहास का पूर्ण ज्ञान, और अपने पूर्वजों के भाग्य, दुर्भाग्य, से पाठ सीख लेना अनिवार्य है; क्योंकि इतिहास की पुनरावृत्ति होती है, उन मूर्खों के लिए, जो अपने इतिहास से अभीष्ट पाठ नहीं लेते, और चेतावनियों को नहीं समझ पाते, या समझना नहीं चाहते।